ग्राम - साहित्य भाग - १ | Gram Sahitya Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११ यहाँ तो समूचे जीवन-दान की आवश्यकता हैं । मैं सोचने लगा--ईश्वर ने इस देश को ग़रीब बनाकर शिक्षितों को अपनी मनुष्यता के विकास के लिये कितना लम्बा-चोड़ा मेदान दे दिया है । शिक्षितों को अपने गाँवों के नीरव हाह्माकार को जो जीवन-साफल्य के लिये ईश्वर की पुकार है सुनना चाहिये | गाँवों की दशा देखकर बार-बार सन को विक्षोभ श्र आाँखों को जद-रेखाए घेर लेती थीं । तन और मन की आँखें तो खुली ही थीं । मैंने कान भी खोल दिये । में गाँधों में गया । गाँदों का वाह सौन्द्य बडा हीं घ्राकषंक होता है । गरमी के तीन-चार महीने छोड़कर बाक़ी प्रायः सब महीनों मे गाँवों के चारोंश्रोर हरियाली ही हरियाली दिखाई पढ़ती है | तालाब आऔर कुएँ बनवा देना श्रौर आम के बाग लगवा देना देहात में बड़े पुण्य श्रौर प्रतिष्ठा का काम समसा जाता है । जिसके पास कुछ मभीं घन बचता है वह ये तीन काम अवश्य करता है । इसका परिणाम यह हुआ दै कि चारोंश्ोर श्राम के बाग ही बाग नज़र ्ाते हैं। पहले इन बागों के फल मीं लोगों को सुफ्त मिला करते थे | पर पेंसे कीं श्रावश्यकता बढ़ जाने से अब इनके फल नींलाम होने बगे हैं । पहले ज़मींदार क्षोंग ऊसर और जंगल गायों के लिये छोड देते थे । पर अब उनका ज़ातीं खर्च इतना बढ गया दै कि वे एक-एक बीता ज़मीन बेंचकर पेसे बना रहे हैं फिर भी क्रजंदार बने रहते हैं । ज़र्मीदारों ने नदी-नालों तक के पेट बेंच लिये हैं । उन्हें मनुष्यों के पेट की चिन्ता कया है? जैसे गाँव का बाह्य सौन्दर्य नयनाभिराम होता है बसे ही उसके भीतर का दृश्य नरक से कम वीभत्स नहीं होता । बरसात में सारे रास्ते पानी श्रौर कीचड़ से भर ज्ञाते हैं । कह सो वरष पहले बेनी कवि ने




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