हिन्दी - रीतिकविता और समकालीन उर्दू - काव्य | Hindi Ritikavita Aur Samkalin Urdu Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२५ लेने को प्रवृत्ति नहीं थी उनकी । उर्दू में यह परवर्तीकाल की रीतिकविता के प्रवाह के समांतर-काल की उच्छलित वृत्ति है । रीतिकविता ब्रजभाषा में लिखी जाती थी । उर्दू-कविता के माध्यम से खड़ी बोली का काव्य में प्रवेश हुझा । उद्दू-वालों ने काव्य भाषा के रूप में भ्रपने ढंग से उसे पर्याप्त समृद्ध किया । सुफ़ियों की भॉति उन्होंने यहाँ की बोली को सहूज- रूप में काव्योपयोगी नहीं रहने दिया । उस पर श्रारोपण किया । सृफ़ियों की अवधी में तसव्वुफ़ भाँकता है कुछ फ़ारसी-साहित्य की सरणियाँ भी भलकती हैं किन्तु सहजता तिरोहित नहीं हुई है । उ्दू-कविता की भ्रदा और क़वायद श्र ही हैं। उसने नई क्षमता श्रौर सामर्थ्य खड़ी बोली को दी । सांस्कृतिक दृष्टि से भी दोनों भाषाओं वाले एक दूसरे के निकट स्वभावतः श्राते रहे । श्रादान-प्रदान भी काव्य क्षेत्र में होता ही रहा । किन्तु दोनों भाषाओं और साहित्यों की निजता बनी रही । एक दूसरे के प्रति भुकाव या प्रणय तो हुआ किन्तु समन्वयात्मक प्रीति नहीं हो सकी । ऑाँकड़ों ने सिद्ध किया हैँ कि रीतिकविता उदू-धारा से उतनी प्रभावित नहीं हुई जितना रीतिधारा से उदृ-प्रवाहू प्रभावित हुभ्रा । इसका कारण भारतीयता के प्रति श्रनुरक्ति श्रौर निजता की मानसिक वृत्ति ही हेतु है । घनानन्द के सम्बन्ध में पता चलता है कि उन्होंने फ़ारसी में एक मसनवी भी लिखी है । किन्तु उनकी स्वच्छन्द रचना कबित्त में फ़ारसीमन नहीं है ब्रजभाषा- पन अवश्य है । वे भाषाप्रवीण तो थे ही ब्रजभाषाप्रवीण भी थे । यहीं के मुहावरों की भंगिमा से उन्होंने सुन्दरतानि के भेद दर्शित-प्रदर्शित किए हैँ । यहाँ समन्वय की नहीं व्यवस्था की वृत्ति रही हैं । समन्वय में दो के सेल से तीसरा नवीन व्यक्ति बनता हूँ । व्यवस्था विशेष भ्रवस्था होती है वेश-रूप में ही कुछ नवता श्राती हैं व्यक्ति नहीं बदलता । उर्दू भाषा श्रौर साहित्य ने नवीन व्यक्तित्व खड़ा किया । बक़ौल मुंशी भिखारीदास ब्रजभाषा सहज पारसी हु मिलाती रही नाग एवम्‌ यवन भाषा का मेल करती रही पर बनी रही ब्रजभाषा की ब्रजभाषा ही । इश्कहक़ीक़ी श्रौर मजाज़ी की भी कुछ-कुछ चर्चा होती रही पर साहित्य भारतीय का भारतीय हो रहा । साहित्यिक द्वितीय खंड में भाषा के श्रतिरिक्त शब्द निर्माण-विधियों मुहावरों प्रादि श्रलंकार बिम्बविधान दौली तथा छंद श्छगाररस अझल्यरस सौन्दर्य-चित्रण प्रकृति-वर्णन श्रादि शीर्षक देकर विस्तृत तलीय एवम्‌ स्तरीय विवेचन है । दोनों में सर्वत्र साम्य-वैषम्य दिखाया गया है । मैं मृहावरों के महावरे पर ही कुछ कहकर मौनावलंबन कर लूंगा । संस्कृत प्राकृत देशी भाषा किसी भी सोपान पर भाषा के भांडार में मुहावरे या वाग्योग न हो ऐसा नहीं है। किन्तु मुरावरों अथवा रूढ़िलक्षणा के प्रयोग-बाहुल्य से काव्य-भंगिमा उत्पन्न करने का चलन भारतीय




User Reviews

  • Rahat

    at 2019-01-30 05:20:34
    Rated : 10 out of 10 stars.
    बहुत उपयोगी
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