यथार्थ से आगे | Yathaartha Se Aage

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Yathaartha Se Aage by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से श्राग € जिस श्रहंकार की तृप्ति किसी की उपेक्षा श्र अपमान से होती है वह हिसक होता है । परे जिस प्रतिहिसा का जन्म किसी की उपेक्षा श्र श्रपमान से होता है प्राय उसका श्रन्त प्रतिष्ठा विजय भ्रौर गौरव -की सृष्टि करता है । रु अन्य कपड़े उतारकर केवल एक बनियान प्रदीप ने बदन पर रहने दी । फिर तिखंड़े पर चढ़कर जब वह रसोईघर में जा पहुँचा तो रसोइया -महराज बैठा ऊँघ रहा था श्रौर बिल्ली खीर की पतीली साफ़ करती हुई शकित दृष्टि से इधर-उधर देख रही थी प्रदीप जब चुपचाप श्रासन पर बैठा तो महराज चौंक पड़ा । बोला-- श्रा गये सरकार श्रौर चूल्हे की लकड़ी को भीतर की भ्रोर खसकाने लगा । फिर श्राटे की गोली पर हाथ बढ़ाते हुए बोला-- मगर बहुत देर कर देते हैं सरकार । . बतलाइये ग्यारह तो बज गये । कब घर पहुचूँगा कब सोऊँगा ? सबेरे सात बजते ही दिकायत होने लगती है--चाय के साथ कोई नमकीन चीज़ नहीं बनी । श्रौर हलुश्ना क्या दाल-रोटी के साथ खाया जायेगा 1 प्रदीप की थाली में खीर श्रौर साग अलग-भ्लग कटोरियों में परोसा जा चुका था । उसी में से सुखे श्रालू के टुकड़े को ट्गते हुए वह बोला-- अ्ब की बार दिसम्बर का महीना जब लगें तब याद दिलाना इस बात की समभ्के । सुनकर महराज चुप रह गया । प्रदीप के इस कथन का मूल्य वह -समभता था । पराठा .तवे पर जा चका था ।




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