कबीर की भाषा | Kabir Ki Bhasha

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Kabir Ki Bhasha by माताबदल जायसबाल - Matabadal Jayasabal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न्ेन प्रयुक्त हुआ है । इतना ही नहीं समध्वनीय भिन्नार्थक पदों (प०्फफुए०८०ा8४)की मी प्रयोगावृतियों का विवेचन किया गया है । उदाहरणार्थ क० गं०में पुरुपवाचक सर्वनाम उत्तम पुरुष ए० व० का पदग्राम मैं और अधिकरणकारकीय परसर्ग मैं समध्वनीय होने पर भी दो शिन्न-र्थिन्न पदग्ाम हैं 1 ४--प्रस्तुत अध्ययन में प्रयोगाधिक्य के आधार पर ही क० काव्य की शूलावार बोली का निर्धारण किया गया है 1 क० गं० में अनेक ऐसे रूप मिलेंगे जो तत्कालीन रूडी न्रज अदधी राजस्थानी में सर्वकिष्ट हैं । ऐसे रूगो कों मुलाधार बोली की प्रकसि-निर्धघारण में नहीं लिया गया इसके लिये केवल उन्हीं रूपों या पदों को प्रयोगा- बत्तियों का सापेलिक अध्यपन किया गया है जो खड़ी राजस्थानी ब्रज अववी भोजपुरी आदि हित्दी की बोलियों में भिन्न-भिन्न रूपों में पायें जाते हैं । यया--संडघकारकीय परसग के रूप में की सर्वनिष्ट है किस्तु का केवल खड़ी में को कीौ केवल ब्रज राजस्थानी में तथा किर क केवक् अवधी भोजपुरी में प्रयुक्त होते है । अतएव ये रूप मछाधार वोछी के निर्घारण में सहायक हो सकते हैं । प्रस्तुत अव्ययन में इन्हीं विदिप्ट रूपों के आघार पर मूलाघार बोली (8280 ताक 86) का निर्धारण हुआ हैं । इस विषय में भी केवल एक पद श्रेणी में प्रयोगाधिक्य देखकर तुरन्त कोई निप्कर्ष नहीं सकाला गया बल्कि सज्ञ सर्वनाम विशेषण क्रिया अब्यय आदि समस्त पदश्नेणियों ( ए&ए9ठी20)पें प्रयोगाधिकय देखकर ही किसी बोलो को मूलाघार बोली(0६अं6 ताक 801) वी संज्ञा दी गई है । इस पद्धति को अपनाने पर प्रस्तुत अध्ययन में जौ निष्कर्ष निकले है उनके संबंध में (मेरी जानकारी में) न तो किसी भी विद्वान ने सकेत किया और नर्मैंने ही इस निष्कर्ष की प्रस्तावना मन में सोची थी । भले ही इस प्रबन्ध के निष्कर्ष अलिम निष्कर्ष न ठहरें किन्तु वस्तुपरक वैज्ञानिक पद्धति को अपनाते हुए इस प्रकार के परिणाम तक पहुँचने का यह अपने ढंग का प्रथम मौलिक प्रयास हैं । ५--आधुनिक भापाविज्ञान की तुछनात्मक पद्धति को अपनाते हुए कबीरसे १ गली पूर्व तथा १ दती पहचात्‌ू भर कबीर के समसामधिक कवियों की भाष और कं० स० की भाप के तुलनात्मक अध्ययन के आधार एर कबीर के आविर्भाव-काल तथा प्रस्तुत पाठ (कबीर यंथावली--हिन्दी परिषद विश्वविद्यालय प्रयाग) का कालनिणय करने का प्रयास किया गया है । इस तुलनात्मक ध्ययन को वैज्ञानिक रूप से यदि पूर्णतबा किया जाता तो इसी दिशा में इतना ही विस्तृत एक प्रबन्ध और तैयार हो सकता था किन्तु स्थानसंकोच के कारण इस दिशा में इतना विस्तृत अध्ययन संभत्र नहीं हो सका फिर भी इस दिया को अपना कर कबीर के काल निर्णय की तमी पद्धति की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार कबीर की भाषा चदरिया के ताने बने का वैज्ञानिक विवलेण्ण करके उसे जस की तस धर देने का प्रयास ही इस प्रबंध का मुख्य उद्देदय




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