साहित्य : सिद्धान्त और समीक्षा | Sahitya : Siddhant Aur Samiksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य 9 आध्यात्मिक रूप के दशन हमें वेदों ब्राह्मण ग्रन्थों आरण्यकों आदि में होते हैं। उस समय यज्ञों की प्रधानता थी । धीरे-धीरे पशुवलि का समावेश भी होगया । समाज के विकसित होने के साथ-साथ वर्ण-व्यवस्था तथा जाति- व्यवस्था भी समाज में आती गई । ब्राह्मण यज्ञादिक कार्यों में अपनी प्रधानता देखकर दम्भी होते गये । उस समय मन्दिर आदि पूजा स्थानों का प्राय अभाव रहा । यज्ञविरोधी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बौद्ध और जैन धर्मों का प्रदुर्भाव हुआ जो एक प्रकार से प्राचीन धर्म में सुधार के लिये आये थे । इसी समय वासुदेव- सुधार-आन्दोलन भी प्रचारित हुआ । इन्होंने वैदिक कालीन कम-काण्डों तथा हिंसा का विरोध किया । इनका साहित्य भी प्रधानतया अहिसामूलक ही है । भारतीय संस्कृति के मध्यकाल में हमें पुराणों की रचनाएँ (विष्णुपुराण अग्निपुराण श्रीमदूभागवत्‌ आदि) मिलती हैं । धर्म के क्षेत्र में देवत्रयी ब्रह्मा विष्रणु महेदा को प्रधानता दी गई। आगे चल कर पौराणिक धर्म में भी परिवर्तन हुआ । दिव के साथ उमा की उपासना की अनिवायेंता भी प्रतिष्ठित हो गई जिसने तांत्रिक युग में काली का रूप धारण किया । पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी भक्ति की लहर का काल था । इस समय के साहित्य में भक्ति के सगुण तथा निर्गुण दोनों रूपों की प्राप्ति होती है । राम और कृष्ण को लेकर सगुण भक्ति दो शाखाओं में विभक्त हो गई | इस प्रकार धीरे-धीरे संस्कृति के रूप बदलते गये और साहित्य उसका वर्णन करता रहा । रीतिकाल में संस्कृति भौतिकता की ओर भुकी जिसका दिग्दर्शन उस काल का साहित्य कराता है । आधुनिक संस्कृति का प्रधान लक्षण सुधार की ओर भरुकाव है । स्वामी दयानन्द ने आयं-ध्म का परिष्कृत रूप जनता के सामने रखा जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य एवं भाषा पर भी पड़ा । साहित्य और संस्कृति अपनी वैभव-ददा में समाज के क्णंधार का काम करते हैं। मानव कुछ सीखने के लिए अपने पूर्वजों की संस्कृति और साहित्य की ओर उन्मुख होता है । यदि किसी देश में साहित्य और संस्कृति अत्यन्त उन्नत हों अन्य देवों के मनुष्य उसकी ओर श्रद्धा से देखते हों तो उस देवा का समाज भी उन्हीं के अनुरूप आचरण करने की चेष्टा करता है। आज भी प्रत्येक हिन्दू रामचरितमानस को अपनी उच्च प्राचीन सस्कृति का द्योतक प्रस्थ मानकर उसको श्रद्धा की हष्टि से देखता तथा उसके अनुरूप आचरण को अच्छा मानता है। बौद्ध संस्कृति तथा साहित्य के अपने उच्चतम दिखर पर होने के समय समाज उसी के अनुरूप आचरण की चेष्टा करता था। इसी से अहिसा का




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