समीक्षा के सिद्धान्त | Samiksha Ke Siddhant

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Samiksha Ke Siddhant by डॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ | |. समीक्षा के सिद्धान्त आत्म-विस्तार, सन्तति-विस्तार अथवा बंश-रक्षा के सांस्कृतिक विकास कै परिणाम से ये स्थायी भाव विकसित हुए है--- रस स्थायी भाव श्रृद्खार रति हास्य हँसी करण शोक ग्रदुभुत पराश्चयं प्रभिष्यक्तिके दो रूप प्रात्म-रक्ना-सम्बन्धी जो राग-तत्त्व अथवा स्थायी भाव हैं उनमें एक आर विशेषता यह विदित होती है कि इनमें से दो तो ग्रात्म-संकट सम्बन्धी हैं--- भय और वीभत्स। হীন दो निवारणा-सम्बन्धी मतोभाव हैं--बीर और रौद्र | ग्रत्म-विस्तार-पम्बन्धी मतोभावों में इतनी स्पष्टता नही, क्योकि ये भाव इतने साधारण नहीं; जटिल हैं | यहाँ तक कि रति के जैसा स्पष्ट भौर उहाम भाव भी जटिल श्र व्यापक है । क्योंकि इत मनोभावों का सम्बन्ध ही मूलतः सामाजिक है भ्र्थात समाज-आश्रित है, व्यक्ति-श्राश्चित ही नहीं । ' .. आत्म-रक्षा की भावता संकुचित प्रवृत्ति का रूप ग्रहणा करती है और 'स्थ' ग्रथवा स्वार्थ में सीमित हो जाती है । उसके विरुद्ध आत्म-विस्तार का भाव उदार तथा प्रसार की भावना से सम्बन्ध रखता है। पहले भाव का मूल है 'बचो' । चाहे पलायन से, चाहें श्राक्रमण से । दूसरे भाव का मूल है 'मिलो' । फलतः प्रथम चार स्थायी भाव मृत्रतः “व्यक्ति! से सम्बन्धित हैं भौर शेष चार 'অমাঅ' के मूल हैं। इसी कारण ये आत्म-विस्तारक भाव जटिल हैं श्रौर थे मनुष्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के प्रेरक है । ा 'बचो' और 'मिलों' के मूल भावों को 'भय' और 'रति' के वो शास्त्रीय नाम दिये जा सकते हैं | आत्म-रक्षा 'भय-विह्नल' होती है। आत्म-विस्तार “रति-विह्नुल' । व्यक्ति का मूल है भय; समाज का मूल है रति । भय-रति के भरमन्वयसे व्यक्ति भौर उसका समाज बना है । दोनों साथ-साथ चने ह । अर




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