दीनदयाल गिरि ग्रंथावली | Deendayal Giri Granthawali

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Deendayal Giri Granthawali  by श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( दूं ) उत्थानिकांकुर | कथित की जाति बहु थाँति गुनि रीत घुनि रुच्छना कहां ले चाच्य विंजना जनात्रा में । भूपन अनेक विधि दूपन न गिने जाहिं छंद के प्रबंधन की किमि के जनाओओ मैं ॥ चसके न छूट नवरस के कविन पाहिं परे तिन बस के कहांते पार पाओ मैं । घसु रूप जस का घरनि मति करों सेत मन मद देत घनस्याम शुन गाता से ॥३७॥। कीजै छक छाँडि सेव राखिये न हिये म्रेच बडी भछों देव जाप जाहि की घतीति है । तान सुर शाम के न काम अयजुरागं जीन जासेों मन पागे तन लागे भी गोति है ॥ साँची रुचिराई मति राची अति जिन्हें पाएं सेई सुखदाई दि आई यह रीति है। शभ्रार सब फोका राघापी के रूप ही के गद्दी साई लगे मोके। जग जाप जाकी प्रीति है ॥३८॥। यात्सव्य-रस-वापी सेवन करत बिधि आदि सनकादि जासू भेव न छहत सब देवन का पति है। कालऊ का काल जगजाद का विलाख नट जाहि अर के. हू दीनदयाल संभु सेस कर्रे नति हैं ॥ नेति मेति गाया बेद भेद न पाया ही तासु माया पासु छाया अरु दाया जासु गति है। ताहि सुख पाये लहि नाच कीं नयचावे गहि मानि मद गोद ले खेलावे जसुमति है ॥३९॥ कचधों पहिरि पीरे भागा कें सजेगो लाल कबाधों घरनि घीर छेक पद राखिहे । रगरि रगरि करि आचरा गहे गो हरि कब डारि भगरि कगरि करि माघिहै ॥ मेरे असिलाषन के पूरि कर साखन सोां दाखन के संग कब साखन की चाखिहे । भेया सेया बलि बल मेया सेां कहेगो कब मेया मेहि के कन्हेया कच सापिदे ॥४०॥। मनि अगनाई में निरखि प्रतिबिश्च निज बार बार ताहि चाहे गहिबे को घावे री । बाजति पेंजनी के चकित हेत घुनि सुनि पुनि पुनि




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