साहित्य - सागर भाग - १ | Sahitya - Sagar Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
36.99 MB
कुल पष्ठ :
599
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ साहित्य-सागर यथार्थ में सच पूछो तो छुद-रचना प्रायः ध्वनि ही से होती है । जिसे छंद की ध्वनि या लय सिद्ध हो जाती है उसे छुद-रचना करना एक स्पाभाविक बात दो जाती दे । प्रस्तुत अथ साहित्य-सागर में कविराज श्रीपिदारीलालजी ने परिंगल पर श्रच्छी विवेचना की है श्र उसी के विवेचन में गीत-निर्माण करने की विधि पर भी अच्छा प्रकाश डाला है । मूंगार-रस इन नो रसों में श्गार रसराज है एव श्द गार ही श्रादि रस कदकर पुकारा गया दै । घुरंघर सादित्य ममंश झ्ार्य-ताहित्य-शास्र के प्रमुख श्राचायों ने सादित्य के रीति-प्र थों में श्ूगार-रस को दी प्रधानता दी है। बात तो यद है फि तास्चिक विवेचना से निष्कर्ष यही निकलता है कि श्गार दी मानव-जगत् का श्वादि रस है ओर इसी के द्वारा मनुत्य-जाति ने जीवन प्राप्त किया है श्रपनी परपरा रक््खी है शरीर उदार हृदय दोकर इसी के विशुद्ध प्रेम से ससार के भ को श्रौर दाशनिकों ने परमात्मा के प्रति जौपाप्मा के प्रेम का परिचय प्राप्त किया है । इसी से सप्ण विश्व के प्रसिद्ध मद्दाकर्यों वी रचनाय्ों में ३ गार-रस के सुंदर वर्णन प्रचुरता से प्राग्त होते हैं । इसका एक प्रधान कारण यह भी हैं कि कविता कज्ञा दे श्रीर भाव-घारा-प्रधान सादित्य के श्रतर्गत । प्रत्येक कला का उद्देश्य सौंदर्य के श्रादर्श को प्रत्यक्षीयूत करना दोता है । इस दृष्टि से काव्य में सौंदर्य का वर्णन रददता है । श्गार ही एक ऐसा रस है जिसमें बाह्य श्रौर झतरंग प्रकृति के सर्वोत्कृष्ट सौंदर्य का वर्णन रहता हे । इसी से श्राद्याचार्य भगवान् भरत मुनि ने झादेश किया है-- यर्किन्चिज्ञोके झु चेमेध्यमुज्ज्वलं दशनीयं वा तत्सव श गारेशोपमीयते । ( नाट्यशाखें ) इसके श्रतिरिक्त भाव-घारानप्रधान साहित्य में प्रेम के समान श्रन्य कोई भी ऐसा भेड़ स्थायी भाव नहीं हैं जिसमें संपूर्ण स्वार्थ निलय श्रौर दवैतमाव-झून्यता का चमत्कार दो । झनुमावों के श्रंतगंत भी इ।वों का वर्णन केवल शगार मे ही दोता है श्रोर सास्विक भावों का भी जेसा उत्कर्प श् गार में होता है बेसा श्रन्य रसो में सरवथा दुलंभ है । फिर श गार-रस में श्राभ्रय श्रोर शालंबन का भी वास्तविक मेद नहीं रहता । इसमें--बे.वल इसी में--स्थायी भाव श्रालंबन वी श्रनुभूति का बिपय दोता है | झन्य रखों में श्राय श्ौर ्ालंबन दोनों स्थायी भाव की श्रनुभूति करते हुए स्वप् में भी नहीं देखें लाते । दोनो में पकप्राणुता का यदद भाव केवल श् गार में ही होता दै । उद्दीपन भाव की दृष्टि से भी शूगार स्वेनश्रेषठ है । श्रन्य रसों के उद्दीपन केवल मानुपी हैं पर शगारनरस के उद्दीपम मानुषी श्रीर देवी दोनो होते हैं । संचारी भावों की दृष्टि से भी श गार सर्व-श्रेष्ठ है स्योंकि शऋगार के स्थायी माव रति के प्रायः संपूर्ण संचारियों का बणन रहता है। यददी नहीं बरन् ख गार का झंग बनाकर दूसरे रसों का बणुन भी किया जाता है । इस प्रकार यह निर्षिवाद है कि श गार ही रसराज है | यथार्थ तो यदद है कि रस की श्राद्यंत संपूण योजना की झमि- व्यक्ति गार-रस के अतिरिक्त श्रौर किसी रस में ऐसी पूर्णता श्रौर उत्तमता से नहीं दोती । श्गार-रस की इसी ब्यापकता के कारण साइिस्याचार्या को रस-निरूपण करने में साहित्य प्रथों में रत योजना को पूणतया स् रोति से समभाने में श्गार का ही श्राश्रन लेना पढ़ा है । साहित्य-रीति-प्र थों के उदाइरणों में श. गार-रस के छुदो श्रौर शवतरणों का बाहुल्य है। झन्य संपयुं रस इसी एक श2 गारनरस के बिवत ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मेंबर
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