अर्थशास्त्र | Arthashastra

Arthashastra by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ख॒ ही ज्यादा सम्पत्तिशाली है । इस चिचारसे वे चाहते थे कि ऐसी क्रीमती घातुएँ बाहर जितनी कम उतना ही अच्छा .और इसी छिये व्यापारपर भौंतिौतिके वनावटी प्रतिवन्ध लगाये जाते थे । ऐसा होनेका कारण यह है कि रुपयेसे सस्प- त्तिका नाप होता है । किसी मनुष्यकी वार्षिक उत्पन्नका जब हम विचार करते हैं तब यहीं विचार करते हैं कि उसकी इतने रुपयेकी वार्षिक आय है और किसी देशके आय-व्ययके विप- यमें भी यद्दी कहा जाता हे अमुक. इतने करोड़ रुपये साठकी आय हैं ओर इतने करोड़ रुपये साछका खर्च । वा- स्तवमें देखा जाय तो रुपया सम्पत्तिकी एक संज्ञा है । और; संज्ञाको ही संज्ञी मानठेनेकी उन लोगोंने भूठकी जिन्होंने रुपया आर सम्बत्तिको एक ही माना । वे दोनोंकें भेंद्को नहीं समझे । इस कारणस आर इसी तरहके और ओर कारणोंसे रुपयेके सच्चे स्वरूपको छोगोंने नहीं समझा । इस बातको सप्रमाण सिद्ध कंरनेके छिये जिन श्रजाओंने चांदीके सिक्के नहीं चलाये और अपना व्यवहार चठाया उनके दूप्रान्त देना ठीक होगा । इस कामके छिये हमें इतिहास देखना चाहिए । एक समय ऐसा था कि चीन चाहकी डिवियाओको रुपयेकी ज़गह काममें ला- 'ती थी । अबतक कई हिन्दुस्तानी .सिकेकी . जगह. कोड़ियोंको काममें ऊाते. हैं । कितने ही अरव रुपयेका काम उंटॉसे लिया करते थे।-इन लोगोंकी भूल वेसी ही हुई जैसी रुप्रयेको सम्पत्ति - को इनका ख़ियाल था कि. जहाँ चायके डिच्वे यहीं, जहां -कोड़ियां नहीं; या जहां ऊंट नहीं वह देश कोर “हु। इन्हें. कभी यह जानना .होता था कि अमुक देश कितनां




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