पुराण - परिशीलन | Puran - Parishilan

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Puran - Parishilan by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रस्तावना दे यहां करना अनावश्यक है । यहां इतना ही कहना है कि ब्रारो वेदों के समान इतिहास-पुराण का भी श्रुति में निर्देश होने के कारण पुराणों का पंचम वेद होना श्रुति को भी अभिमत हैं, यह सिद्ध हो गया । उपनिषदो में तो छान्दोग्य', बुहदारण्यक' आदि मे इतिहास-पुराणो के नाम वेदों के साथ स्पष्ट रूप से ही आये हू और वहाँ पंचम पद भी है, जो कि पुराणों का पचम वेद होना स्पष्ट सिद्ध करता है। यह सब देखकर स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि पुराण-विद्या भी' वेद के समान ही अनादि है, या यों कहे कि वेद के ही दो विभाग हे--एक पुराणवेद और दूसरा यशवेद । आज व्यवहार में हमलोग यज्ञवेद को वेद कहते हूं और... पुराण- वेद को केवल पुराण शब्द से हीं कहा जाता है। इतना भेद अवश्य है कि वेद नाम से कहे जानेवाले यज्ञवेद में अक्षर, पद, वाक्य, आनुपूर्वी आदि सबकी बड़ी दृढता से रक्षा की गई है; “क्योकि उसके मन्त्तो का थज्ञ मे उच्चारण करना पड़ता हैं। और, ब्राह्मण-भाग के द्वारा यज्ञ की इतिकत्तव्यता का क्रम बनाया जाता है। इसलिए, कमंकाण्ड करनेवालो को उसके प्रत्यक्षर कण्ठ करने की आवश्यकता रही और अब भी है। भआारय॑-जाति का यह विश्वास रहा कि उसमें एक अक्षर की भी न्पूनाधिकता हो जाने पर कमें विफल हो जाता है। इसलिए, पद, क्रम, जटा, घन आदि विकृत पाठो के द्वारा उसके बिन्दु-विसगें तक को अन्यया न होने देने का पूर्ण प्रयत्न हुआ । पदों और - अक्षरों तक की गणना ग्रन्थों में लिखी गई । इस कारण वह जैसा आरम्भ में था, वैसा ही आज थी मौजूद हैं । किन्तु, पुराण केवल समझ लेने की विद्या है, इसलिए उनके पदविन्यास, वाक्य रचना, आतनुपूर्वी आदि पर इतना बल नहीं दिया गया । अथें की रक्षा की गई । वाक्यविन्यास भिन्न-भिन्न ऋषियों के सवाद में बदलता रहा, और प्रति कलियुग मे भिन्न-भिन्न व्यासो ने उनका विस्तार या सक्षेप भी किया । जैसा कि वत्तेंमान कलियुग के आरम्भ में भगवान्‌ कृष्णद्वपायन व्यास ने लोगो की सुविधा के लिए अपने ढग से नया सगठन किया हैं, जो कि आज हमे उपलब्ध है । पूर्व के कलियुगो मे जो-जो व्यास हुए, और जिन-जिन ने पुराणों का सयठन किया, उन सबके नाम भी पुराणों मे प्राप्त होते है । भिन्न-भिन्न ऋषियों के गुरु-शिष्य- १. अधीदि भगव इति दोपससाद सनत्कुमार नारदः । त्त दोवाच यद्देत्थ तेन मोपसीद ततस्त ऊर्ध्व वक्ष्यामीति ॥ सद्दोबाच--कग्वेद भगवोधध्येमि; यजुर्वेद सामवेदमाथवंण चतुथंम; इतिहासपुराणं पश्चम वेदाना वेद, पिश््य; राशि देव निधिस्‌ + वाकोवाक्यस्‌ » एकायनस्‌ देवविय्या; ज़ह्मविद्यामु » भूतविधाम्‌ » क्षत्रविद्यामु, नक्षत्रविद्यामु » सर्वेदेवजनविद्याम » एतद्‌ भगवोडध्येमि 1 सो भगवो मन्त्रविदेवास्ि नात्मविद्‌। (छन्दोग्य; प्रपा० ७, ख० है) २. स यथाद्न्धनाग्नेरम्याहितात्यथर्धूमा विनिर्चरन्त्येव वा अरेघस्य महतो थूतस्य निःदवसित- मेतबष्णेदो यजुर्वेदः; सामवेदोध्थवीज्चिरस इतिदासः पुराण विद्या उपनिंषदः इलोका-; सूज्ञाण्यनुव्याख्यानानि; व्याख्यानान्यस्वैवेतानि सर्वाणि सिः्डवसितानि । (िददारण्यक, उ० अ०; जा दे; म० १०)




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