वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति | Vaidik Vigyan Aur Bharatiy Sanskriti

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Vaidik Vigyan Aur Bharatiy Sanskriti by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) अग्नि के होत्र कमं का स्वरूप यहाँ होता शब्द ध्यान देने योग्य है। होता का अर्थ है देव या भक्ति का आवाइन करनेवाला । उस आवाहन के द्वारा बाहर से भूत तत्व को लेकर अग्नि में उसका हवन करनेवाला और हवन करके उसे आत्मस्प मे परिवर्तित करनेवाला जो शक्ति का रुप है, वही द्योताः है । प्रत्येक गर्भित कोप ( फर्टिल्पइज्ड सेल ) में जो स्पन्दन देता टै, वह इसी होत्र कर्म की पृत्ति के लिए है। वह बाहर से भूतो या पचतत्वो को केन्द्र मे खींचकर उसका सवर्घन करता है | इसमे दो प्रक्रिया दिखाई पडती है, एक अन्न- अन्नाद दी प्रक्रिया है और दूसरी सवर्धन की प्रक्रिया | अन्न-अन्नाद का तात्पर्य यह है कि केन्द्र मे बेंठा हुआ अग्नि जो अन्नाठ है, बाहर से अपने लिए অন্ন না सोम चाहता है | इसे अन्नाद अग्नि की भूख या अशनाया कहते है | यदि अग्नि को सोम न मिले, तो यज्ञ की समाप्ति हो जाय और कोप के सवर्धन का कार्य रुक जाय | वैजानिक सिद्धान्त कै अनुसार जीवन के तीन विशेष लक्षण है | जहों भी जीवन रहता है, वहाँ इन तीनो की सत्ता पाई जाती है | उनमे पहला अन्न-अन्नाद का नियम हैं, जिसे वैज्ञानिक 'एसीमिलेशन 'भौर 'एल्मिनेशन!' को प्रक्रिया कहते है ( अग्निना रविममब्नव- त्पोपमेव दिवे दिवे )। पोषण দা करने के वाद दूसरी प्रक्रिया सवर्धन की है, जिसे वेज्ञानिक भाषा मे सेल-फिशन, सेल्-डिवीजन या ओथ कहते है | इन दोनो के वाट जीवन का तीसरा लक्षण प्रजनन है। जिस बीज से प्राण की उत्पत्ति होती है, प्रजनन के द्वारा पुन उसी वीज की सृष्टि प्रकृति का लक्ष्य है। वीज से बीज तक पहुँचना यही प्रकृति का चक्र है, जिसे ब्रह्म-चक्र एवं सबत्सर-चक्र भी कहते है। प्रसेक बीज काल की जितनी अवधि में पुन बीज तऊ पहुँच पाता है, वही उसका सवत्सर-काल है । किन्तु यह्‌ सब॒त्सर की चक्रात्मक गति है। जो बार-बार घमती हुई काल की अवधि मे नये-नये वीजो का निर्माण करती है | प्रजापति की ख॒ष्टि मे समस्त प्राण-त्व या जीवन सवत्सर-चक्र से नियन्त्रित टै । इसीलिए व्राह्यण-ग्रन्थो मे कटा है कि खवत्षर ही प्रजा- पति है--सवत्सर एव प्रजापति › (उतपथ २।६।३।५); अर्थात्‌ खि की जो प्रजननात्मक प्रक्रिया है, वह सवत्सरात्मक काल की शक्ति से नपे-नये रुपो में प्रकट होती हुई सामने आ रही है। इस सवत्सर के दो रूप है--एक चक्रात्मक, दूसरा वजात्मक | प्रृथ्वी जितनी अवधि मे एक बिन्दु से चलकर पुन उसी विन्दु पर लौट आती है, वह चक्रात्मक सवत्सर दै, अर्थात्‌ उतनी देर म काठ का एक पहिया घूम जाता है, किन्तु उसका कोई चिह्न अवसिष्ट नही रहता । उख सवत्सर की अवधि मेदेव याञग्नियाचक्तिमजोमभी भूत पदार्थ वाहर से खीचकर अपने स्वल्प से ढाल लेती है, वदी यजात्मक सब्त्सर है | अग्नि में सोम की आहुति इसका स्वरूप है। चक्रात्मक सवत्सर केवल प्रतीकमान्र है, वह भातिसिद्ध है, वह केवल छन्‍्द या आवपन या पात्र है| उस पात्र में अग्नि द्वारा सोम की जो मात्रा भर जाती है, वह यज्ञात्मक सवत्सर सत्तासिद्ध है । उसी को हस भूत- भौतिक या स्थूल दृश्य रुप से प्रत्यक्ष प्राप्त करते ह | इस प्रकार विच्व की रचना के लिए प्रनापति ने अपने आपको सवत्वर ओर यन इन दो सूपो में प्रकट किया है--




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