भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की हिंदी साहित्य में अभिव्यक्ति | Bhartiya Rashtravad Ke Vikas Ki Hindi-sahitya Me Abhivyakti
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
52.38 MB
कुल पष्ठ :
393
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. सुषमा नारायण - Dr. Sushma Narayan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द भारतीय राट्ष्वाद का विकास हिन्दी साहित्य में अभिव्यक्ति से किसी एक तत्व के श्राधार पर भी राष्ट्रवाद के विकास में पर्याप्त सहायता पाप्त हो सकती है । रेस्जै म्योर की परिभाषा इतनी विस्तृत है कि उसमें किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता का श्राधार सुगमता से ढूढा जा सकता है । वे एक राष्ट्र कोब्बेबल इसलिए राष्ट्र मानते हैं कि उसके निवासियों का ऐसा विश्वास होता है श्रौर उनके श्रापस के घनिष्ट सम्बन्ध दस विश्वास की जड़ में निहित होते हैं । निःसम्देट लक्ष्य तथा स्वार्थों की समानता घनिष्ठ सम्बन्ध समधिगत स्वार्थ तथा सुख के लिए व्यचितगत-्वाों वा त्याग राष्ट्रीयता के लिए श्रावश्यक हैं किस्तु इसके लिए अ्स्य तसव अप्रत्यक्ष रूप से क्रियाशील रहते हैं । रेम्जे म्योर ने राष्ट्रीयता की कोई निश्चित एवं मान्य परिभाषा नहीं दी है । प्रोफेसर मजूमदार की परिभाषा भी श्रावस्यकता से श्रधिक विस्तृत है । रीति-रिवाज श्रथवा रहन-सहन में समानता न होने पर भी एक राप्ट में राष्ट्रवाद की भावना मिल सकती है । प्रोफेसर हैज की परिभाषा में राष्ट्रवाद का अधिक विस्तृत एवं उज्ज्वल रुप नहीं मिलता । यद्यपि राष्ट्रवाद का जन्म फ्रांस में राष्ट्र के प्रति गये की भावना से हुआ था. किन्तु श्राज श्रन्य राष्ट्रों के प्रति उपेक्षा की भावना उप- युक्त नहीं समभी जाती । सच्चे राष्ट्रवाद में श्रपने राष्ट्र के प्रति गव॑ की भावना के साथ अन्य राष्ट्रों के सम्मान का उच्च श्रादर्श रहता है । यह तो एक राष्ट्र के जन- समुदाय को कस कर बांध रखने की श्यू खला मात्र है जिससे वह छिन्न भिन्न न हो जाये | हुमैन की परिभाषा भी सीमित श्र संकुचित है । वर्तमान युग का राष्ट्रवाद जातिवाद का विकसित रूप नहीं कहा जा सकता । राष्ट्रवाद विशिष्ट सामाजिक ग्राधिक राजनैतिक परिस्थितियों का फल है तथा उसे हम मानव-बुद्धि की श्रगति का परिणाम कह सकते हैं। जातिवाद श्रथवा जातीय एकता तो उसका एक तत्व मान बन सकता है। भाषा तथा संरकृति की एकता भी श्रावश्यक नहीं है । डा० सुधीन्द्र ने राष्ट्रवाद झौर राष्ट्रीयता का सूक्ष्म विवेचन न करके स्थूल रूप से समभाने का प्रयटन किया है । . एक देश देश की संज्ञा से ऊपर उठकर राष्ट की संज्ञा को तभी प्राप्त करता . है जबकि उसके निवासियों में कुछ सामान्य विशेषताश्रों के भ्राधार पर घनिष्ट संबंध स्थापित हो जाता है. तथा वे सब झ्पने को देश की इकाई के रूप में देखते हैं । जब _ एक निश्चित सीमा में श्राबद्ध भूभाग के लोगों का इतिहास एक होगा--उनमें श्रतीत गौरव-गाथाशओं के प्रति गवं होगा तथा भविष्य में श्रपने राष्ट्र को सुदढ़ करने वाली योजनाश्ं के प्रति उत्साह होगा-- तभी राष्ट्रीयता की भावना संभव हो सकेगी । एक राष्ट्र के जन श्रपनी राष्ट्रीय भावना को साहित्य शिल्पकला चित्रकला संगीत श्रादि कला-माध्यमों के द्वारा अ्भिव्यक्त करते हैं जिससे भ्रन्य राष्ट्र उनकी राष्ट्रीयता से परिचित हो सकें । इस प्रकार राष्ट्रीयता भ्रथवा राष्ट्रीय भावना का सम्बन्ध केवल . बाह्य शरीर अथवा जड़ भूमि मात्र से न होकर भ्रान्तरिक होता है। श्न्त में यह
User Reviews
No Reviews | Add Yours...