भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की हिंदी साहित्य में अभिव्यक्ति | Bhartiya Rashtravad Ke Vikas Ki Hindi-sahitya Me Abhivyakti

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhartiya Rashtravad Ke Vikas Ki Hindi-sahitya Me Abhivyakti by डॉ. सुषमा नारायण - Dr. Sushma Narayan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ. सुषमा नारायण - Dr. Sushma Narayan

Add Infomation About. Dr. Sushma Narayan

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
द भारतीय राट्ष्वाद का विकास हिन्दी साहित्य में अभिव्यक्ति से किसी एक तत्व के श्राधार पर भी राष्ट्रवाद के विकास में पर्याप्त सहायता पाप्त हो सकती है । रेस्जै म्योर की परिभाषा इतनी विस्तृत है कि उसमें किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता का श्राधार सुगमता से ढूढा जा सकता है । वे एक राष्ट्र कोब्बेबल इसलिए राष्ट्र मानते हैं कि उसके निवासियों का ऐसा विश्वास होता है श्रौर उनके श्रापस के घनिष्ट सम्बन्ध दस विश्वास की जड़ में निहित होते हैं । निःसम्देट लक्ष्य तथा स्वार्थों की समानता घनिष्ठ सम्बन्ध समधिगत स्वार्थ तथा सुख के लिए व्यचितगत-्वाों वा त्याग राष्ट्रीयता के लिए श्रावश्यक हैं किस्तु इसके लिए अ्स्य तसव अप्रत्यक्ष रूप से क्रियाशील रहते हैं । रेम्जे म्योर ने राष्ट्रीयता की कोई निश्चित एवं मान्य परिभाषा नहीं दी है । प्रोफेसर मजूमदार की परिभाषा भी श्रावस्यकता से श्रधिक विस्तृत है । रीति-रिवाज श्रथवा रहन-सहन में समानता न होने पर भी एक राप्ट में राष्ट्रवाद की भावना मिल सकती है । प्रोफेसर हैज की परिभाषा में राष्ट्रवाद का अधिक विस्तृत एवं उज्ज्वल रुप नहीं मिलता । यद्यपि राष्ट्रवाद का जन्म फ्रांस में राष्ट्र के प्रति गये की भावना से हुआ था. किन्तु श्राज श्रन्य राष्ट्रों के प्रति उपेक्षा की भावना उप- युक्त नहीं समभी जाती । सच्चे राष्ट्रवाद में श्रपने राष्ट्र के प्रति गव॑ की भावना के साथ अन्य राष्ट्रों के सम्मान का उच्च श्रादर्श रहता है । यह तो एक राष्ट्र के जन- समुदाय को कस कर बांध रखने की श्यू खला मात्र है जिससे वह छिन्न भिन्न न हो जाये | हुमैन की परिभाषा भी सीमित श्र संकुचित है । वर्तमान युग का राष्ट्रवाद जातिवाद का विकसित रूप नहीं कहा जा सकता । राष्ट्रवाद विशिष्ट सामाजिक ग्राधिक राजनैतिक परिस्थितियों का फल है तथा उसे हम मानव-बुद्धि की श्रगति का परिणाम कह सकते हैं। जातिवाद श्रथवा जातीय एकता तो उसका एक तत्व मान बन सकता है। भाषा तथा संरकृति की एकता भी श्रावश्यक नहीं है । डा० सुधीन्द्र ने राष्ट्रवाद झौर राष्ट्रीयता का सूक्ष्म विवेचन न करके स्थूल रूप से समभाने का प्रयटन किया है । . एक देश देश की संज्ञा से ऊपर उठकर राष्ट की संज्ञा को तभी प्राप्त करता . है जबकि उसके निवासियों में कुछ सामान्य विशेषताश्रों के भ्राधार पर घनिष्ट संबंध स्थापित हो जाता है. तथा वे सब झ्पने को देश की इकाई के रूप में देखते हैं । जब _ एक निश्चित सीमा में श्राबद्ध भूभाग के लोगों का इतिहास एक होगा--उनमें श्रतीत गौरव-गाथाशओं के प्रति गवं होगा तथा भविष्य में श्रपने राष्ट्र को सुदढ़ करने वाली योजनाश्ं के प्रति उत्साह होगा-- तभी राष्ट्रीयता की भावना संभव हो सकेगी । एक राष्ट्र के जन श्रपनी राष्ट्रीय भावना को साहित्य शिल्पकला चित्रकला संगीत श्रादि कला-माध्यमों के द्वारा अ्भिव्यक्त करते हैं जिससे भ्रन्य राष्ट्र उनकी राष्ट्रीयता से परिचित हो सकें । इस प्रकार राष्ट्रीयता भ्रथवा राष्ट्रीय भावना का सम्बन्ध केवल . बाह्य शरीर अथवा जड़ भूमि मात्र से न होकर भ्रान्तरिक होता है। श्न्त में यह




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now