शाक्त - दर्शन | Shakt - Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे शात-द्शन ६४ िरवकन-पेकिनविव-निविविवविन नव ३ गा गा भा है दान कैली _ ७० न चिकन जिजक ििक अप टी नाक गा दलकनललापण दी सयलननटकीनक कथन न तस्मिू हुतंच दत्त च सब भरम भ कक विवि वि वि विष्यति । (शक्तिसंग म) जनधन हद सथ गीता में सी भगवान्‌ ने ज्ञान को अग्निरूप हीं कहा है ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि . भस्मसात्‌ . क्रियतेडजन । एवं आदि-अग्नि महाकाल ऋषि-प्रसीत ऋग्वेद भी नानार्निशवरूपा आद्या के रूपक अग्नि शब्द से ही प्रारम्भ किया गया है। यथा--श्रग्निमीज्ञ पुरोदितिमू ...... । ऐसा ही कथन तन्त्र में दक्षिण काली विपय्रक थी है-- ज्वलनार्थ समा- योमात्‌ सब॑-तेजोमयी शुभा । इसी की आइतचि कठोपनिषद्‌ू में दे-- ज्योतिरिवाधूमकः (कठो ० २--१-१३) पुनश्च-- यच्छुश्र-ज्योतिपां ज्योतिस्तद्यात्मविदो विदुः । (सुर्डक २-४) वेदों में मन्त्र उनकी भाषा अनादि प्रतीत होती है । उनमें किब्बिन्मात्र भी सुधार अथवा नवीनीकरण सम्भव नहीं । कहा गया है कि ब्रह्मा ने सदस्र चपे तपस्या द्वारा वेदाथ प्राप्त किया । ऋषियों ने भी उच्च भूमिकाओं के स्तर पर ही इसको प्राप्त किय। । अपोरुषेय वेद वहि-स्वरूप कालिका से उद्भूत हैं । महाकाल-रूप मानसिक शिव जो आया वह्ति बिस्व- स्वरूप हैं--उन्हीं से इनका प्रशयन हुआ । इसी कारण वेद के आदि ऋषि महाकाल अथवा अग्नि हैं। सुदीघे काला- नन्तर वेद विभाजन पर यजुबेदादि के ऋषि वायु आदित्य तथा अज्ञिरा कद्दे गये। चारों वेद एक स्वर से मूलतत्व विद्याराज्ञी-रूपी वह्ि (कालिका) तथा तड्जनित यज्ञादिकों का ही मुक्तकण्ठ से स्तबन करते हैं । वेद का अथे व्याकरण द्वारा नहीं किन्तु झागमालुसार यथोक्त भूमिका पर आरोहण करके मन्त्रदेव-दशन द्वारा ही सम्भव है । वेद मन्त्रात्मक हैं छन्द




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