जीवन यात्रा | Jivan Yatra

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Jivan Yatra by विद्यानिवास मिश्र - Vidya Niwas Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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का उस पर अमल घर से डर भी और घर की चाह भी मेरी जीवनयात्रा गोया इन्हीं दोनों छोरों को एक साथ बाहों में वॉधथ लेने की करुण कोशिश है । कया राहुल जी ने अपने मित्रों और स्नेहियों के आग्रह के बावजूद अपनी छवि पर दो-चार ख़रोंचें नहीं लगाई ? कहना न होगा कि यदि खरोंच आई भी होगी तो छवि पर ही व्यक्तित्व तो बहुत वड़ी चीज है व्यक्तित्व तो अंदर से चटखता है और उसके कारण भी बहुत आन्तरिक होते हैं उन आन्तरिक कारणों का पता लगाने के लिए मेरी जीवनयात्रा को दूसरे ढंग से पढ़ना होगा जो सम्प्रति सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर राहुल जी की मरी जीवनयात्रा अन्ततः एक आख्यायिका ही है। तिधियाँ और घटनाएँ वास्तविक होकर भी एक धारावाहिक आख्यान में नियोजित होने की प्रक्रिया में एक अन्य कल्प-सृच्टि का रूप ग्रहण कर लेती हैं। फलतः कंदारनाथ पॉड़ का महापण्डित राहुल सांकृत्यायन में रूपान्तरण एक सरल रेखा के समान दिखाई पड़ता है जवकि उसके जटिल होने की सम्झावना अधिक है मरी जीवनयात्रा का आख्यान स्वयं महायात्री राइल की तरह इतनी तीव्र गति से चलता है कि किसी स्थान पर एक निश्चित अवधि से अधिक टिकना ही नहीं चाहता । राहुल बुद्ध क॑ समान ही चरत भिक्खवे जैसे भिक्षु-धर्म का ही पालन करते दिखाई पड़ते हैं और मेरी जीवनयात्रा उन चरणों का अनुसरण काने के लिए जैसे बाध्य है। इस संघरण में यदि कुछ चीजें छूट गईं तो आश्चर्य नहीं । उदाहरण के लिए प्रकृति यहाँ न कोई फूल खिलता है. न कोई चिड़िया वोलती है और न कहीं सूर्य की किरण बादलों पर अपनी रंगीन कूँचियाँ फंरती हैं। राहुल जी की दिनचस्पी अगर किसी चीज में है तो सिर्फ मनुप्यों में प्रत्येक मनुष्य को इतनी बारीकी से देखते हैं कि मेरी जीवनयात्रा हजारों व्यक्तियों के रेखाकन का एक जीता-जागता अलबम बन गई है। गालिव ने तो सत्तर साल की उम्र में सत्तर हजार व्यक्तियों को अपनी नजर से गुजरने का दावा किया था राहुल ने तो इससे ज्यादा लोगों के साथ रहकर जिन्दगी गुजारी होगी | वैसे आदमियों के अलावा पशुओं से भी राहुल जी का लगाव था जिसका सबसे मार्मिक उदाहरण है सेडू टुऋ नामक तिब्वती कुतिया की मौत । उस नन्हीं-सी जान के मरने पर राहुल जी ने लिखा है मैंने इतनी मात्रा मे ओर अचानक पीड़ा कभी नहीं अनुभव की थी । कितनी ही वार मेरी आँखों से ऑँसू निकल आए । माता और पिता के मरने पर तथा मेरे लिए प्राण देनेवाले नाना-नानी क॑ मरने पर भी जो आँखें नहीं पर्सीजी उनमें आज छल-छल आँसू उमइ आ रहे थे। यह घटना 1926 की है । स्पष्ट है कि वुद्ध के अनुयायी त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन के अन्तस्तल में प्रचुर करुणा थी । जरूरी नहीं कि वह समय-समय पर ऑसू वनकर छलकं ही । तुलसीदास के जनक भी परम विरागी कहे जाते थे किन्तु एक विशेष क्षण में मिटी महा मरजाद ग्यान की । और फिर लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपण कर सोना । किन्तु लगता है कि मेरी जीवनयात्रा में महापडित ने मरजाद का ध्यान कुछ ज्यादा ही रखा है और कृपणता में तनिक भी दील नहीं द्वी है कहीं-कहीं हृदय जरा खुल पड़ा होता तो कुछ हानि न होती । बल्कि कुछ आर हध ही होती | | मेरी जीवनयात्रा जीवनी कं रूप में भले ही न लिखी गई हो जैसा कि प्रावकथन में लेखक ने ऐलान किया है एकदम यात्रा भी तो नहीं है है ता आख़िर जीवन-यात्रा ही-राहुल जी का दिया हुआ एक नया पदवंध बहु अर्थगर्भ 32 शिवालिक अपार्टमिंट्स अलकनदा नई दिल्‍ली-1 10019




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