भारतीय दर्शन में आत्मा की अमरता के सम्प्रत्यय के सन्दर्भ में मोक्ष की अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन | Bhartiya Darshan Me Atma Ki Amarta Ka Samprtyay Ke Sandarbh Me Mochh Ki Avdharna Ka Samikshatamak Adhyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.17 MB
कुल पष्ठ :
305
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऋग्वेद मे महर्षि दीर्घतमा के (अस्यवामीय सूक्त) मे अमर्त्य तथा मर्त्य दो तत्त्वो का वर्णन है। एक तत्त्व तो मनुष्य है दूसरा अदृश्य। इनमे आत्मा सत्त्वगुणी होने से धार्मिक तमोगुणी होने से कामी और रजोगुणी होने से धार्मिक का विरोधी अर्थवान होता है। ऋग्वेद के एक मत्र मे आप्रड और प्राद ये दो शब्द क्रमश पुनर्जन्म एव मोक्ष के वाचक है। पुनर्जन्म एव मोक्ष दोनो ही स्थिति मे आत्मा को शरीर मे आना पडता है। पर जो आत्मा इस शरीर मे आकर प्रकृति के रजोगुण या तमोगुण से बध जाता है वह अप्राद् अर्थात् पीछे की तरफ लौटता है यही वस्तुत पुनर्जन्म है। पर जो आत्मा इस शरीर मे आकर भी धार्मिक प्रवृत्ति का ही रहता है वह धप्राड अर्थात् आगे बढता है दूसरे शब्दों मे मोक्ष की तरफ अग्रसर होता चला जाता है । ऋग्वेद मे यद्यपि यह माना गया है कि मृत्यु जीवन का अन्त नही है परतु पुनर्जन्म का सिद्धान्त अभी विकसित नही हो पाया था किन्तु कही-कही पर पुनर्जन्म का सिद्धान्त दृष्टिगोचर होता है। पुनर्जन्म सम्बन्धी ये विवरण अत्यन्त न्यूनमात्रा मे ही लम्य होते है। ऋग्वेद मे वशिष्ठ के जन्म के विषय मे वर्णन मिलता है। कर्म सिद्धान्त भी पुनर्जन्म के साथ सम्बद्ध है। अच्छे कर्म करने से पुण्य होता है और कालान्तर मे उससे सुख की प्राप्ति होती है तथा अनुचित कर्म करने से पाप और दुख मिलता है। इस जन्म के पूर्व और पश्चात् भी जीव का अस्तित्व रहता है और जीवन काल मे पूर्व जन्मों मे किये गये कर्मों के फलो को भोगने के लिए बार-बार इस ससार मे जीव का आना होता है मरने पर जीव देवयान तथा पितृयान मार्ग से दूसरे लोको मे जाता है इत्यादि सिद्धान्तो के मूल मे कर्म की गति है। वैदिक काल मे सभी थोडा बहुत कर्म की गति को जानते थे अन्यथा उपर्युक्त सिद्धान्त को वे नहीं स्वीकार कर सकते थे। दार्शनिक विचार मे कर्म की गति की बडी महिमा है। वास्तव मे ससार की सभी घटनाए जीवो की सभी चेष्टाए यहाँ तक कि स्वय यह जगत् कर्म की ही गति का फल है। ब्राह्मण तथा बौद्ध विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन | डा० जगदीश दत्त दीक्षित पृष्ठ १८६ से उदृघृत
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