त्रिपुरी का कलचुरि वंश | Tripuri Ka Kalchuri Vansh

Tripuri Ka Kalchuri Vansh by श्री चिन्तामणि हटेला - Shri Chintamani Hatela

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ 1] रहता था और तो क्या आने जाने के रास्ते भी द्ज रहते थे । जब किसी गाँव का दानपत्र लिखा जाता था तब उपमें साफ तीर से खरोक्ष दिया जाता था कि डिस किस चीज का अधिकार दान लेने वाले को होगा भौर किस किस का नहीं । मन्दिर गोचर भर पदले दान की हुई जमीन उसके अधि कार से बादर रदती थी । कलचुरियों का राजय उनके शिलालेखा में त्रिकलिंग भर्थात्‌ कलिंग नाम के तीन देशो पर भौर उनके बादर तक भी दोना लिखा मिलता दे । सभव है कि यद्द वढाकर लिखा गया हो | पर एक बात से यद्द सद्दी जान पड़ता है बद्द यद्द है कि इन्दोंने अपने दुलगुरू पाहुपत पथ के मददन्तों को तीन लाये शॉँव दान दिये थे । यदद सख्या साधारण नहीं है । परन्तु वे मददन्त भी भाजकल के मदद्तों जेसे स्वार्धथी नद्दीं थे बल्कि शुणी साहित्य सेवी उदार श्रीर परमार्थी थे। वे अपनी उ बढ़ो भारी ख्ागीर की आमदनी को लोकदित के कामों में लगाते थे । इन महनतों में विश्वेश्वर शभ्ु नामक मदन्त जो कि सबतू १३०० के भास पास विद्यमान्‌ था बडा दी सजन सुशोक गौर धर्मात्मा था | इसने सब जातियों के लिए सदाब्रत खोल देने के सिवा बबाखाना . दाईखाना और मददाविद्यालय का भी प्रबन्घ किया था । सगीतशाला और चुप्पशाला में नाच और गाना सिखाने के लिये काश्मीर देश से गवेये थ्योर कत्यक बलवाये थे | जब पुण्याथ दी हुई जागीर में ऐसा होता था तब कलचुरि जा के धपने राज्य में तो भीर भी बडे बढ़े लोकदित के काम दोते दोंगे। परन्तु चनका लिखा पूरा दियरण न मिलने खरे आाचारो है | कलचुरियों के राब्या के साथ ही उनकी जाति भी जादी




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