प्राचीन राजस्थानी गीत भाग 2 | Prachin Rajasthani Geet Bhag 2

Prachin Rajasthani Geet Bhag 2  by गिरिधारीलाल शर्मा - Giridharilal Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राव मालदेव जोधपुर & सिंध म कल कल चल चल मम ख्रप,चल त्रिकूट मम रह अचल ॥। कीघा नव सहसे राय कोयण, दस संहस ऊपरे दल ॥३े॥। रे मधियल रे नधथियल थिर रहि, थरक न हरन थिर थाव ॥। गंगावत गांजिया न गांजे, गांजे राव ऑ्ँगजिया गांव ।४॥। | रचयिता:- अज्ञात | भावा्थ:-- हे समुद्र व शेष नाग ! तुम किसी बात की शंका मत करो; हे लंकागिरि तू भी किसी हानि की आशंका मत कर: क्योंकि राव मालदेव ने रुष्ट होकर कुम्भलमेर पर अपनी सबल सेना सुसज्जित की है ॥1₹॥। हे काले नाग और स्वणगिरि ! तुम अपने दिल में किसी प्रकार का डर क्यों रखते हो ? इस मालदेव राठौड़ ने कद्ध होकर झपनों अश्ववारोही सेना मेवाड़ पर सुसब्जित की है ॥२॥। दे समुद्र ! तू क्यों छलकता है? हे सप॑ और त्रिकुटाचल ( लंका ), तुम क्यों चलायमान होते हो ? अविचल्न बने रहो क्योंकि मारवाड़ नरेश ने तो दस सहस््र ग्रामों के अधिपति ( मेवाड़ ) की ओर अपनी आँखे उठाई हैं ॥३॥। दि नै उसमें उसको सफलता नहीं मिली । इस गोत में ब्रतिशयोक्ति की मात्रा आाधक हैं जता कि राज्याश्रित कब्ियों की रचना में होती है. श्रोर थे एक पत्त को श्रेष्ठ बतला कर. दूसरे को होन बतलाने... की चेष्टा करते हैं। रात्र मालदेव और महाराणा उदयर्सिंह में विरोध हुआ, इस विषय की मेत्राड में भी कई रचनाएँ मिलती हैं, जो इस प्रशर हैं: कुभलगढ़ कटारगढ़, श्रंवला पाणी फेर, कीजों राजा माल ने, बसांझा कुमनमेर । भाड़ कटायां माली नहिं मिले,रश कटा यां राव, कुमलगढ़ के कांगरे,थू माछर वेने श्राव ।|




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