सांख्य - दर्शन | Sankhya - Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ठ नाषाबुवाद । दु:ख टूर करनेवाले पदाध रहते हैं तो भी इन उपायोसे दु:ख की सत्ता कदापि नष्ट नहीं हो सकती जब सत्ताछो बनी रही तो दुःखसे छुटनाछी क्या हुआ ? अतणव प्रमाण कुशल बुद्ि- मानोंको ऐसा पुरुषाथ कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है किन्तु सवधा त्यागने योग्य है ॥ ४ ॥ उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कषंशुते: ॥ ५ ॥ पूर्वोक्त उपायोंसे सुखकी प्राप्तिक लिये यत्न करना व्यर्थ है क्योंकि भ्रन्य सुख सगस्थायी है आर मोक्त सुखको सब उत्कर्ष (ऊअ वे) सुखों सभी अधिक उत्कष शुतियों नेभी माना है जेसे “आत्म- लाभाव्र पर॑ लाभ विदाते” भत्मलाभको वरावर दूसरा कोईभी लाभ नहीं है। अब यहां पर यह शह्दा होती है कि मोक्ष- सुखछ्ो सबसे उत्तम है इसमें क्या प्रमाण है # ५ ॥ अविशेषश्रोभयो: ॥ ६ ॥ यदि मोन्को सबसे उत्तम न कहा लाय तो अन्य सुख और मोक्ष सुख दोनोंमें विशेषता अर्थात्‌ समानताही रही अब रहा यह सन्देह कि मोक्ष (छुटना) कद्नेसे यह प्रतीत छोता है कि पहले बदधा तो वह बन्धन स्वभावसे है वा किसी निमित्तसे * यदि स्वभावसे है तो बन्धन कदापि नष्ट नछों होगा, आर जो किसौ निमित्तसे है तो उस निभित्तके नाश छोजाने पर बन्धन भी अवश्य छूट जावेगा, फिर मोक्षके लिये यत्न करना व्यथे छोगा अतएव इस शड्दामें पदिले स्वभावसे बन्धन माननेमें दोष कहते है ॥ ६ ॥




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