ऋग्वेद खंड 3 | Rigved Khand - 3
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.14 MB
कुल पष्ठ :
704
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जन्म:-
20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)
मृत्यु :-
2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत
अन्य नाम :-
श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी
आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |
गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
पत्नी :- भगवती देवी शर्मा
श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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प्रेरित करने वाखे पराक्रमी इन्द्र ने श्रनशंसि, पिप्ु, सविन्द, दास, और शह्ीशुव
का संहार किया ॥२॥ हे इन्द्र ! बुन्न का छेदन करो । इस वीर-कें में तत्पर
होश्रों 11३1 दे स्वुति करने वालो ! सेघ से जल की याचना करने के समान
ही शत्रुओं का नाश करने वाले इन्द से तुम्हारी रक्षा की प्रार्थना करता हूँ ॥४
दे वीर इन्द्र ! जब तुम प्रसन्न होते हो तब जैसे तुमने शत्रू,-पुरों के द्वार खोले
थे, कैसे ही स्तुति करने बालों के लिए गौ श्वौर श्रश्चादि के स्थान का द्वार
खोल देते हो ॥३॥ . जि]
यदि मे रारण: सुत्त उक्ये वा दधसे चन: । श्रारादुप स्वधा गहि ॥६
वयं घा ते अपि ष्मसि स्तोतार इन्द्र गिवेण । त्व॑ं नो जिन्व सोमपा: 1७
उत नः पितुमा भर संरराणों अ्रविक्षितम् । मघवन्थूरि ते वसु 1८
उत नो गोमतस्कृधि हिरण्यवतों श्रश्विन: । इव्झभि: से रमेमहि ॥£
वुबदुक्थं हुवामहे सप्रकरस्नसरुतये । साधु कृण्वन्तमवसे ॥1१० ॥२
हे इन्द्र ! मेरे श्रमिषुत सोस श्रौर स्तोत्र की कामना करते हों सो मुझे
झनन देने के लिए दूर देश से भी धन के सहित यहाँ श्वागमन करो ॥६ || दे
इन्ब ! दे सोमपाये ! हम तुम्हारी स्तुति करने वाले हैं, तुस हमको हर्षित करते
ही॥ ७॥ हे इन्द्र ! हस पर श्सन्न होओं । क्षीण न होने वाला 'मनन
हसको प्रदान करो, क्योंकि तुम श्रपरिसित धन वाले हो ॥ स ॥ है इन्द्र | दम
झन्न से सम्पन्न हों । हमें यो, श्रश्च झौर सुवणं थ्राद़ि धर्नों से भी सम्पन्न
करो ॥४॥ इन्द्र झपनी सुजाशओं को जगत की रक्षा के लिए फैलाते हैं श्रीर
पोषण के लिए दिलकर कार्यों को करते हैं । हम उन्हीं उक्थ वाले इन्द्र को
झाहल करते हैं ॥ ३० ॥ रि]
य: संस्थे चिच्छतक्तुरादी कृणोति बृत्रह्मा । जरिदृभ्य: पुरूवसुद 11११
स नःं इक्रसिचिदा शकद्दातवाँ अ्स्तरासर: इन्द्रो विर्वाभिरूतिथि: 1९२
«यो रायो वनिमंहान्त्युपार: सुन्वतः सखा । तसिन्द्रमभि . गायत ॥१३
“आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितमू । सुररीशानमोजसा ॥१४
नकिरस्य शचीनां नियन्ता सुदूतानाम्। नकिर्वक्ता न दादिति 1१४ 15
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