रीतिकालीन काव्य पर संस्कृत काव्य का प्रभाव | Ritikaleen Kavya Par Sanskrit Kavya Ka Prabhava
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.76 MB
कुल पष्ठ :
340
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राक्कथव । ८05
विवेचन के प्रसंग में कप्तिपय स्थानों पर रीतिकाल के अन्य कवियों के उदाहरण भी
सहज रूप में अवत्तरित हुए हैं । विपय के स्वरूप की व्यापकता तथा विस्तार भय के
कारण इस प्रबन्व मे विपय को शंगार तक ही सीमित रखा गया है तथा बिहारी,
मतिराम, देव, पद्माकर, इन चार कवियों के काव्य को तुलना का प्रमुख आधार
बनाया गया है । इससे मौलिकत्ता की दृष्टि से रीतिकालीन कवियों के काव्य का
एक पक्ष स्पप्ट हो जाता हैं ।
प्रस्तुत प्रवन्ध कुल मिलाकर पाँच अध्यायों में विभाजित किया गया है ।
पहले अध्याय के अन्तर्गत श्गार की परिभाषा, उसके स्वरूप, भेद एवं विभिन्न अव-
यवों पर विचार किया गया है । उसके परचात् पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत तथा द्विन्दी
साहित्य की म्थ्रगार परम्परा को प्रस्तुत किया गया है । सस्कृत्त के वैदिक-साहित्य से
लेकर रामायण, महामारत, पुराण, कालिदास साहित्य, अश्वघोपष-साहित्य, मलंका-
रिक संस्कृत साहित्य, मुक्तक-साहित्य में शंगार-परम्परा की चर्चा की गई है । उसी
प्रकार हिन्दी काव्यों की श्गारिक परम्परा का. दिग्दशंत किया गया है, जिसमें
मादिकाल, भक्तिकाल तथा रीतिकालीन काव्य में वर्णित श्प्गार-परम्परा की चर्चा
समाविष्ट है |
दूसरे अध्याय में सयोग-श्ंगार के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए रीतिकालीन
हिन्दी तथा सस्कृत काव्य मे उपलब्ध समान प्रसंगों की तुछना की गई है । इसके
अन्तगंत परस्पर-दर्शन, स्पर्गालिंगन, संकेत, होली, जलक्रीड़ा, निषेघात्मक स्वीकृति,
सुरति-केंछिं, सुरतान्त आदि प्रसंगो का समावेदा किया गया है ।
तीसरे अव्याय में विध्रलम्म-स्गार का विवेचन किया गया है । यह अध्याय
कई दृषप्टियों से महत्त्वपु्ण॑ माना जा सकता हूं । रीतिकालीन भालोच्य कवियों ने
पुर्वराग, मान भौर प्रवास-इन तीन भेदों को ही मुख्यतया ग्रहण किया है । मत: इस
मध्याय के अन्तगंत इन तीनों भेदोपभेदों के अतिरिक्त अभिलापा, चिन्ता, स्मृति,
युणकथन, उद्दे ग मादि वियोग की दस दशामों का भी समावेश किया गया है! संस्करत
तथा गालोच्य रीतिकालीन हिन्दी काव्य के विध्रलम्भ-श्गार उदाहरणों की तुलना
प्रस्तुत कर दोनो की समान तथा विपम भूमियों की ओर सकेत किया गया हैं ।
चौथे अध्याय में श्ंगार के एक महत्त्वपुर्ण अंग नाथक-नायिका भेद का विवे-
चन किया गया है । संस्कृत तथा रीतिकाछीन हिन्दी काव्य में न।यक-नायिका भेद
विषयक प्रसंगों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । नायिकाओं के अन्त-
गत स्वकीया, परकीया तथा. सामान्या के मुख्य भिदोपभेदों एवं नायकों के अन्तर्गत
पति, उपपति तथा वैशिक-इन तीन भेदोपभेदों पर आधारित प्रसगों का विवरण है ।
पाँचवें अध्याय में स्यूगार के उद्दीपन-पक्ष “नखशिख' का विवेचन किया गया
है । इसमें सर्वप्रथम ने त्रो को मुख्य रुप में ग्रहण किया. गया है, क्योंकि रीतिकालीम
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