रामचरितमानस में अलंकार - योजना | Ramcharitmanas Me Alankar Yojana

Ramcharitmanas Me Alankar Yojana by डॉ. वचनदेव कुमार - Dr. Vachandev Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्कथर्न ि : गोस्वामी वुलसीदास--स्व० बाबू शिवनंदन सहाय ने अपनी इस प्रस्तक में पृष्ठ १६.३- १६७ तक “रामायण में रुपकादि की बहार” शीपंक से एक परिच्छेद लिखा है । इस निबंध में रूपको के अतिरिवत उपभाओं) यमक तथा अनुप्रास की भी चर्चा है । इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन्‌ रै६ १६ ई० में प्रकाशित हुआ था 1 २: गोस्वामी हलसीदास--आचाय रामचन्द्र शुक्क ने अपनी पुस्तक गोस्वामी तुलसीदास” के प्र १४७ से १६६ प्रप्ठ अर्थात्‌ १६ प्रष्ठो मे घुलसी के *अलंकार-विधान” पर विचार किया है | यहाँ थल्कार के कार्य पर विचार करते हुए उन्होंने हुलमी-साहित्य मे अलंकार-विनियोग-सौदर्य पर विचार किया है। उनका यह विवेचन सारग्भ है,फिर भी इसमें सानस मे प्रबुक्त दस-पाँचच अलंकारों के उदाहरण के अतिरिवत हमारे कार्य के लिए और कुछ प्राप्त नहीं होता । यह पुस्तक पहली बार सम्बद्‌ १६८० अर्थाव्‌ सन्‌ १६२३ ई० में प्रकाशित हुई थी । ३ : चुलसी-साहित्य-रत्नाकर-- छुलसी-सा हित्य-रत्नाकर के लेखक पं० रामचन्द्र द्विवेदी हैं। इस पुस्तक के अवसान-खण्ड अर्थात्‌ तृतीय खड- ग्रन्थालोचन के अंतर्गत्त अलंकार भर तुलमीदास पर विश्वार किया गया दै । शब्दालकार के अंतर्गत १ : अन्लुप्रास, २४ यमक, ३: शलेप, ४: पुनरक्ति प्रकाश, ४ : पुनरुक्ततदाभास, ६ । वीप्सा, ७: वक्नोक्ति और प्रदेलिका 1, गर्थालंकार के अंतगत--१ : उपमा; २: प्रतीप, ३ : रूपक, ४: परिणाम, ५४ उल्लेख, ६: स्मरण, ७ : भान्ति, ८ : सन्देह, ६ : अपह ति; १० : उठ्परक्षा; ११ : अतिशयोक्ति, १२ : तुल्य- योगिता; दीपक, १४ * आवृत्ति दीपक, १५ : कारकदीपक, १६ ! मालादीपक, १७ : देहरी ठढीपक, १८४ प्रतिवस्तुपमा, १६ : दृ्टान्त, २०४ निदशना; २१ : व्यतिरेक, २२ : सहोक्ति २३: विनोक्ति, २४ : समासोक्ति; २४ : परिकर, २६ : परिकरांकुर, २७: अप्रस्तुत प्रशंसा, र८: प्रस्व॒ताकुर; २६: पर्यायोक्त, 3० : व्याजस्त॒ति, ३१ : व्याजनिन्‍्दा; ३२ ४ आक्षेप, ३३ : विरोधाभास; ३४ : विभावना, ३४ : विशेषोक्ति, ३६ : असंभव, ३७ : असंगति; ३८: विषम, बह: सम, ४०४ विचित्र, ४१: अधिक, ४२: अल्प, ४३ : अन्योन्य, ४४ : विशेष, ४ 2 व्याघात, ४६: कारणमाला; ४७ : एकावली, ४८ : सार; ४६ : क्रम, ५० : पर्याय, ४१: परि- वृत्ति;, ५२: परिसंख्या, ५३ : विकल्प, ५४ : समुच्चय, ४५ : समाधि, ५६ प्रत्यनोक, ५७ : काव्यार्थापति; ८ : काव्यलिंग, ५६ : अर्थान्तरन्यास, ६० : विकस्वर, ६१ : प्रीढ़ोक्ति, ६९२: सभावना, ६३: मिथ्याध्यवसित, ६४ : ललित, ६५ : प्रहघ॑ण, ६६ : विघादन, ६७ : उल्लास; ६८ : अबज्ञा, ६६ : अनुज्ञा, ७० : तिरस्कार; ७८ : लेश, ७२ : सुद्रा, ७३: रतावली, ७४१ तद्युण, ७५: अतदूगुण, ७६: पुवरूप, ७७ : अनुगुण, ७८ : मीलित, ७६ : उन्मीलित, ८० : सामान्य, ८१ : विशेष, ८२ : विशेषकोन्मीलित, ८३ : युढ़ोत्तर, ८४: चित्रोत्तर, ८५: सूक्ष्म, पद : पिहित; ८७ : व्याजोक्ति, ८८ : युढ़ो क्ति, ८६ : विव्तोक्ति; ६० : युक्ति, € १: लोको क्ति, ६२: छेकोक्ति, ६३ : स्वभावोक्ति, ६४ : भाविक, £४ : उदात्त, ६६ : अत्युक्ति, £७ : प्रतिपेध, हु १ विधि, ६६ ४ प्रमाण, १ ० । हेतु तथा उभयालंकार मे संकर संसष्टि के समग्र छुलसी-सादहित्य से अनेक उदाहरण दिये गये हैं । द्विवेदी जी ने उपमा के अंतगंत ही मालोपमा, उपमेयोपमा तथा अनन्वयोपमा को समा विष्ट कर लिया है तथा दीपक, आइत्तिदीपक, कारकदीपक, मालादीपक तथा देहरीदीपक को अलग- अलग अलंकार माना है |




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