प्रताप चरित | Pratap Charitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ३ ] रहे हों सो नहीं प्र्युत स्वयम्‌ भी समरांगण में शत्रुओं से भिड़- कर वीर क्षत्रियों का हाथ बटाते हुए वीरगति को प्राप्त होते रहे । दी नहीं कभी कभी तो क्षत्रियों से भी श्ागे बढ़ कर आक्र- मण कारियों से लोहा ले शत्रओओं के छक्के छुड़ा रणचंडी को रक्तघारा, शंकर को . मुण्डमाला श्र पित्रों को रक्तपिन्ड ब्वद्ाया है श्रौर साथ ही निभयता एवम्‌ निष्पत्तता युक्त चाहे राजा हो या रंक उसकी उचित अनज्लुचित वीरता झौर कायरता एवम्‌ गुण अवशुण की निस्संकोच शालोचना समालोचना कर प्रत्येक क्षत्रिय को मान एवं मयादाच्युत सहीं होने देने में सच्चेष्ट रहते ये हैं । इसी कारण से क्त्रिय समाज में चारण,. जाति के प्रति अधिक श्रद्धा, भक्ति शरीर आदर है श्रोर साथद्दी निम्नोक्त पथानुसार भावना भी । “चारण तारण क्षत्रियां, भगता तारण राम | वे अमरापुर छेचछे, ये नवखंड राखे नाम ॥'... “प्राचीन “जोगो किणहीन जोग, सहजोगों कीनो सकव । लूंढा चारण छोग, तारण कु क्षत्रियाँ तणों ॥” --मद्दाराजा मानसिंहजी, जोधपुर करो घणों कहे किशनसी, नूप! चारणानेह । अमर मरयाने ये करे, दे सुन्दर जश देह ॥ -रावत क्रिशनसिंहजी




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