Book Image : बीजक  - Bijak

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अभिलाष दास - Abhilash Das

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कबीरदास - Kabirdas

कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बीजक जाने कबीर साहेब के मन में किसी प्रकार की हीन-भावना बिलकुल ही नहीं धी ककारा अपने को अनेक जगह जोलाहा कहकर ही व्यक्त किया है ही यथा. जोलका दास कबीरा हो तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा आदि। अपनी युवावस्था तक वे कपड़ा बुनने का काम करते रहे हों इसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए । ३. बे विरक्त संत थे हि द कि कबीर साहित्य में सदूगुरु कबीर का विरक्त रूप ही झलकता हैं परन्तु जि नाम से पायी जाने वाली अनेक वाणियां जो रूपकों एवं प्रतीकों में कही गयी हैं तथा श्लेषात्मक हैं उनके वास्तविक अर्थ को न समझकर उनका शाब्दिक अर्थ करते हुए अनेक लेखकों ने कबीर साहेब को गृंहस्थ ही नहीं सिद्ध किया बल्कि किसी ने तो उनकी दो पत्नियां होने का फतवा दे दिया परन्तु समस्त कबीरपंथ के साथ-साथ अनेक विद्वान जो उनकी वाणियों के आध्यात्मिक रूपक एवं कथन-शैली को समझते हैं वे इस मान्यता का समर्थन नहीं करते। कबीर-वाणी में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त लोई शब्द जो आम जनता तथा लोग का वाचक है और जो इसी अर्थ में कबीर के पूर्ववर्ती गोरखनाथ तथा नाथपंथियों की वाणियों में भी प्रयुक्त हुआ है उस लोई शब्द को घसीटकर अनेक विद्वानों ने उसे कबीर की पत्नी बना डाला। परन्तु यह ज्वलंत सत्य है कि कबीर साहेब बाल-ब्रह्मचारी आजीवन विरक्त संत थे। ८५रे ४. उनका राम कबीर-वाणी में जितनी बार राम शब्द का प्रयोग हुआ है उतनी बार किसी और शब्द का नहीं। अकेले बीजक में इसका प्रयोग लगभग १७० बार हुआ है। परन्तु यह ध्यान रखना होगा कि जहां इसका प्रयोग घट-घटवासी चेतन तत्त्व स्वसत्ता के अर्थ में है वहां पर यह विधिपरक है और जहां आत्मतत्व से भिन्न किसी लोकवासी के लिए है वहां निषेधपरक। दाशरथि राम का अनेक स्थलों पर उल्लेख करते हुए भी कबीर ने कहीं पर भी उन्हें अपना इष्ट या उपास्य नहीं माना है बल्कि दाशरथि राम को उपास्य मानने वालों की उन्होंने आलोचना की है। यथा-- दशरथ सुत हिहूँ लोकहिं जाना । राम नाम का मर्म है आना । ? इसी तरह अनेक पदों में भी देखा जा सकता है। यहीं पर स्वामी रामानन्द से उनका विरोध भी दिखाई पड़ता है। किंवदंती के अनुसार स्वामी रामानन्द कबीर के गुरु माने जाते हैं। हो सकता है अपने प्रारंभिक साधनाकाल में कबीर ने स्वामी रामानन्द का शिष्यत्व स्वीकारा हो परंतु आगे चलकर सैद्धांतिक अन्तर पड़ने से उन्होंने उनकी आलोचना की है। क्योंकि स्वामी रामानन्द दाशरधि राम के प्रेम में मतवाले धे और कबीर साहेब किसी शरीरधारी को संसार का हर्ता-कर्ता मानकर उसे अपना उपास्य मानने एवं उसके प्रेम में मतवाले रहने के सख्त खिलाफ थे। यद्यपि उन्होंने स्वयं भी रामरस पीने १... शब्द-9०९| २... रामानन्द रामरस माते कहहिं कबीर हम कहि कहि थाके । (शब्द ७७)




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