पीया चाहे प्रेम - रस | Piyaa Chaahe Prem Ras
श्रेणी : नाटक/ Drama, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17.57 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कुटिया की प्यास श्श्
अफसर की फटकार सुवकर वह चौंक उठा और लजाया-सा कमरे
से बाहर निकल आया । दब भी वह सपना उसका साथ नहीं छोड़ रहा था।
एकबार की उसकी ढिठाई सब को ठेछ कर सामने आ खड़ी हुई :
तभी-तभी वह शोक-स्नाता हुई थी और वह पहुँचा था उसे शोक-सान्त्वना
देने । परन्तु इसको देखते ही वह यों पुलकित हो उठी, यों चंचल हो रही कि माँ-
बहुन भी देखकर चकित रह गई थीं । यह पता पाना कठिन था कि उसे कभी
कोई शोक हुआ हो *+«
नहां कर भाई ही थी और दर्पण के सामने खड़ी होकर बाल भाड़
रही थी । यह नादान कमरे की खिड़की से उस शीतल और तरल चाँद को
मुख भाव से देख रहा था ।
घरती का बह चाँद बेदाग और बन्धन-विमुक्त था--न भव्य भाल पर
कोई बिदिया थी, न गे में काला धागा ही दीखता था। फिर भी उस सदय :-
स्नाता का वह निराभरण सौन्दय चराचर के रोम-रोम को पुलूकित कर रहा था ।
यद्यपि वह सौन्दर्य दर्शनीय नहीं था, फिर भी बेसुध बना वह उसे देख
रहा था--जेसे रस-रस करके सुधापान करता कोई तृषातं भाकंठ तृप्त हो रहा हो।
अफसोस यही कि वह राका-पुखी उसे देख नहीं रही थी ।
जंसे पुष्प का पुष्कल मकरन्द पीकर छक्ता मघकर उड़ पड़ता है, यह श्रमर
भी कमरे से उड़ा और जाकर ठीक उसके पीठ-पीछे खड़ा हो गया |
दर्पण में परछाई' पड़ते ही वह घूम पड़ी और ब्िहूँस कर बोली :
क्या देख रहे हो ?'
'विधाता की अद्भुत सुष्टि' * किन्तु एक छोटी-सी चीज के अभाव में
यह सौर्दर्य-सृष्टि कुछ सुनी लगती है ...जरा ठहरों «««
कहते-कहूते जेब से लाल पसिक निकाल कर उसने उसके सुने भाल पर
मृदूलता से एक लाल बिन्दी लगा दी और तुष्ट होता बोछा :
'घूम जाओ और देखो--अब कसी लगती हो !'. -.
सुत्दरी घूम तो गई, पर बिन्दी देखकर जड़वत्ू खोई रह गई--जछे
विधाता की कोई बड़ी भूल भूत की तरह उसे घूर रही हो !
घीरे-घीरे उसके ठुछ-मुल नयनों से अविर्र अश्नु-धारा बहने लगी -- जिले
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