पीया चाहे प्रेम - रस | Piyaa Chaahe Prem Ras

Piyaa Chaahe Prem Ras by रामानन्द शर्मा - Ramanand Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुटिया की प्यास श्श् अफसर की फटकार सुवकर वह चौंक उठा और लजाया-सा कमरे से बाहर निकल आया । दब भी वह सपना उसका साथ नहीं छोड़ रहा था। एकबार की उसकी ढिठाई सब को ठेछ कर सामने आ खड़ी हुई : तभी-तभी वह शोक-स्नाता हुई थी और वह पहुँचा था उसे शोक-सान्त्वना देने । परन्तु इसको देखते ही वह यों पुलकित हो उठी, यों चंचल हो रही कि माँ- बहुन भी देखकर चकित रह गई थीं । यह पता पाना कठिन था कि उसे कभी कोई शोक हुआ हो *+« नहां कर भाई ही थी और दर्पण के सामने खड़ी होकर बाल भाड़ रही थी । यह नादान कमरे की खिड़की से उस शीतल और तरल चाँद को मुख भाव से देख रहा था । घरती का बह चाँद बेदाग और बन्धन-विमुक्त था--न भव्य भाल पर कोई बिदिया थी, न गे में काला धागा ही दीखता था। फिर भी उस सदय :- स्नाता का वह निराभरण सौन्दय चराचर के रोम-रोम को पुलूकित कर रहा था । यद्यपि वह सौन्दर्य दर्शनीय नहीं था, फिर भी बेसुध बना वह उसे देख रहा था--जेसे रस-रस करके सुधापान करता कोई तृषातं भाकंठ तृप्त हो रहा हो। अफसोस यही कि वह राका-पुखी उसे देख नहीं रही थी । जंसे पुष्प का पुष्कल मकरन्द पीकर छक्ता मघकर उड़ पड़ता है, यह श्रमर भी कमरे से उड़ा और जाकर ठीक उसके पीठ-पीछे खड़ा हो गया | दर्पण में परछाई' पड़ते ही वह घूम पड़ी और ब्िहूँस कर बोली : क्या देख रहे हो ?' 'विधाता की अद्भुत सुष्टि' * किन्तु एक छोटी-सी चीज के अभाव में यह सौर्दर्य-सृष्टि कुछ सुनी लगती है ...जरा ठहरों ««« कहते-कहूते जेब से लाल पसिक निकाल कर उसने उसके सुने भाल पर मृदूलता से एक लाल बिन्दी लगा दी और तुष्ट होता बोछा : 'घूम जाओ और देखो--अब कसी लगती हो !'. -. सुत्दरी घूम तो गई, पर बिन्दी देखकर जड़वत्‌ू खोई रह गई--जछे विधाता की कोई बड़ी भूल भूत की तरह उसे घूर रही हो ! घीरे-घीरे उसके ठुछ-मुल नयनों से अविर्र अश्नु-धारा बहने लगी -- जिले




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