लोक साहित्य | Lok Sahitya

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Lok Sahitya by सुरेशचन्द्र त्यागी - Suresh Chandra Tyagi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 नही हैं । यह संभव नहीं हो सकता । जीवन की सुल आवश्यकताओं की पर्ति कीं भाँति ही इनकी पृति भी प्रकृत अभीप्ट है । इसके लिए मानव की निर्वाध अभिव्यवित ज्वालामुखी के उद्गार की भाँति बिना किसी निफेध, वर्णन की चिन्ता किए जब तद फूट पड़ती है । लोकोक्ति हैं श्मारते का हाथ कोई भले थाम ले, बोलते का मुह नहीं पकड़ा जाता ।' वह भी लोक का मुख ! भला उसकी सहस्र जिह्वा को कौन पकड़ सकता है? वह निसगं है । लोक सबको देखता है । सब कुछ देखता है । जो देखता है वह कहता हैं--पहले भी यही स्थिति थी, आज भी वही है, और कल भी वहीं रहेगी ।. लोक-साहित्य का सृजन इसलिए अवाध गति से चलता रहेगा । कदाचित्‌ आपको प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम (1857) का यह गीत सुनने को न मिला हो 'लवालव कटोरा भरा खुन से' किन्तु कु वरसिंह की शौय॑-गाथा व राव राजा तुलाराम का साखा तो आकाशवाणी से सुना होगा । चलिए वह भी न सहीं, तो अभी हाल ही में हुए देश के आम चुनाव (1977) के गीत भी क्या नहीं सुने ? यदि वह नहीं तो क्या अभी कुछ दिन पहले अखबारों में प्रकाशित साँग गीत भी आपने नहीं पढ़ा ? गढमुक्तेश्वर के गड्ा मेले (1946) के साम्प्रदायिक-संघर्प की खण्ड-काव्य जैंसे लम्बे गीत में गायी गई गाथा आपने नही सुनी ? हो सकता है कि अपने काँच-मन्दिर में सदा बन्द रहने के कारण ये स्वर आप तक न पहुँचे हो । युवा छात्रों की प्रसन्न मण्डली में कहकहों के साथ मिश्चित आलोचना के अनायास निकलने वाले शब्द आप नहीं सुनते ? लोक धुनों पर आधारित गीत गढ़ने के आकाशवाणी तथां फिल्म जगत्‌ मे हो रहे उद्योग से क्या आप अपरिचित हैं? इस सबका कारण लोक-साहित्य की भाव-प्रवणता नहीं तो और क्या है ? उसका सर्जन कभी समाप्त तो क्या मद भी नहीं हो सकता । वास्तव में लोकसाहित्य जहाँ जीवन की उच्छल चंचल प्रवृत्ति को सामने लाता है, वहाँ वह सुरसा के मुख की तरह फेलती समाज ' की अनियमितताओ एव सर्वेग्रासी असांस्कृतिक गतिविधियों को नियन्त्रित भी करता है । वह अपडढ़ लोगो की रचना भले हो, अविवेकी लोगों की नहीं । लोकमायक समाज के जागरूक पहरुए हैं। स्वयं जागकर समाज को जगाए रखने का काम लोकगायक और उसकी उन रचनाओं का ही है जो पानी पर फैलते तेल की बूंद की भाँति अपना विस्तार करती जाती है, करती ही जाती है । कारण कि लोकगीत लोक के लिए बोलता है, जिंहवा पर चढ़ अपार जनसमुदाय को सम्बोधित करता है । किसी वर्ग अयवा सस्था के लिए नहीं । फिर, हृदय की भाषा हृदय ही में स्थान पाती है, मुक्तकों के कारागार मे बंद हो रहने का उसका स्वभाव नहीं । वह मौखाद है, श्रुति है । लोक-साहित्य के लिखित-अलिखित दो रूप (£#018£ 1.06 & ऊ01£ उ०८०८)मौखाद एवं लोक-साहित्य कहे गये है । इस दूसरे शब्द को वाद में गढा गया है । इसका इतिहास इतना पुराना नहीं जितना मौखाद का है। वास्तव में लोकामिव्यक्ति का सत्‌ स्वरूप यहीं मोखाद है ।




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