निति निर्झर | Niti Nirjhar

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Niti Nirjhar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रात्मा की वास्तविकता द क्या तेरे कान हिरन के कान की भाँति खड़े और तेरी भाँखें गरुड़ की तरह तेज हो जायें ? क्या तेरी सुँघने की शक्ति भी दिकारी कुत्तों जेसी हो जाय ? क्या तेरी स्वाद- दक्ति वत्दर की शॉँति हो जाय ? क्या तुझमें भी कछुए की भाँति ज्ञान-दयक्ति आ जाय ? दया ये सब नष्ट-श्रष्ट नहीं हो जाते ? क्या इनमें से किसीको भी वाक्‌-दक्ति दी गयी है ? क्या इनमें से कोई तुझसे कह सकता है कि मैंने इस कारण यह काम किया ? चुद्धिमानु के होंठ तिजोरी के पलों की भाँति हैं । ज्यों ही खुलते हैं, तेरे सम्मुख जवाहसत उंडेल देते हैं । उनके समयाचुसारी शब्द अत्यन्त उचित और सुन्दर होते हैं । इनको ऐसा समझ, जेसे चाँदी की वस्तु में सुनहरे वेल-बूटे । कया तू अपनी आत्मा की वास्तविक प्रतिष्ठा को विचारसीमा से घेर सकता है ? इसकी प्रशंसा सन्तुलित ढंग से की जाय, तो उसे अतिशयोक्ति ही समझा जायगा । जान रख, यह उस ख्रष्टा का चित्र है। उसने तुझे वह दी है। इसके पद और मान को मत भूल । यह बहुत बड़ी भमानत है, जो तुझे सौंपी गयी है । लाभ पहुँचानेवाली प्रत्येक वस्तु हानि भी कर सकती है । सावधान ! अपनी आत्मा को सदा पुण्य की ओर भाकृष्ट रख । इस भ्रान्ति को मन से निकाल डाल कि तू इसे किसी विराट जन-ससूह में खो सकता है अथवा किसी पिंजड़े में वन्द रख सकता है । कार्य में लीन रहना इसकी प्रसन्नता है । विना वृत्ति के यह रह नहीं सकती । इसके कम में सातत्य है । इसके प्रयत्न भी निरन्तर हैं । इसकी स्फुति कम नहीं की जा सकती । कोई वस्तु संसार के किसी दुर देश में ही क्यों न हो, उसे भी यह खोज लेगी । जिस वस्तु तक ज्योतिष की भी पहुँच नहीं, इसकी तीन्न दृष्टि उसको शी जान लेगी । अस्वेषण इसकी प्रसन्नता का कारण है । प्यासा व्यक्ति तपती हुई मरु-मूसि में भी पानी के रिए घूमता है, इसी प्रकार आत्मा को ज्ञान की विलक्षण प्यास रहती है । भात्मा के हाल-चाल का संरक्षक वन; क्योंकि वह निरंकुश है । उसे अनुशासन में रख, क्योंकि वह नियमवद्ध नहीं है। उसके औौचित्य का संरक्षण कर, इसलिए कि वह क्रोधी है । वह पानी से अधिक तरल, मोम से अधिक नर्म॑ और हवा से ज्यादा हल्की है । फिर भला वह किस वस्तु से सम्बद्ध हो सकती है? विवेकद्दीन की भात्मा ठीक वेसी है जसे पागछ के हाथ में तलवार 1 इसके अनुसन्धान भर जिज्ञासा का फल सत्यता है और इसकी अनुभूति का माध्यम है, बुद्धि और अनुभव 1 किन्तु क्या ये सभी माध्यम मरंक्त, नदवर और भ्रम- सूल्क नहीं ? फिर वह सत्य को केसे प्राप्त कर सकती है ?




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