नीतिवाक्यामृतम् | Niti Vakya Mritam

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Niti Vakya Mritam by सुन्दरलाल - Sundarlal

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भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अनेक पक्ष थे। हिंसा और अहिंसा के  साथ कुछ लोग देश तथा विदेश में पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जन जागरण भी कर रहे थे। अंग्रेज इन सबको अपने लिए खतरनाक मानते थे।

26 सितम्बर, 1886 को खतौली (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में सुंदरलाल नामक एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। खतौली में गंगा नहर के किनारे बिजली और सिंचाई विभाग के कर्मचारी रहते हैं। इनके पिता श्री तोताराम श्रीवास्तव उन दिनों वहां उच्च सरकारी पद पर थे। उनके परिवार में प्रायः सभी लोग अच्छी सरकारी नौकरियों में थे।

मुजफ्फरनगर से हाईस्कूल करने के बाद सुंदरलाल जी प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर कालिज में पढ़ने गये। वहां क्रांतिकारियो

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पक अमृल्य सम्मति [ प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में ] श्री० विद्वद्वय्यं ५० रणज्ीतसिह जी मिश्र, व्याकरण व साहित्याचायं, वाराजसी शादूंलविक्रीडितच्छन्द: पत्थादो कितं पदं च सततं नोतिस्सदाचारमाक्‌ । यस्यान्ते हि सुक्लोभतेऽपतपदं सभ्ये तु वाक्यप्रव ॥ ररखितो प्रन्थोऽपमन्वथं भाक्‌ । नेवाद्यापि कृता वििष्टकृतिना टीका मनोहारिणी ॥१॥ कोकान्वीकय संदा विमोहितधियो प्रन्थावनोधं विना । तदुमरन्थाधं विेषवणंनपरा भावार्थयोषे क्षमा ॥ शोमत्सुन्दरकालसोम्पत्रिवृषा टीका हि भाषा कृता । यत्रत्थां च निरीक्ष्य बोधनककां चिक प्रमोदो हान्‌ १२५ सन्रस्यं विपुलं श्रम बुधवरे पाण्डित्यरूपं तथा । लोकानामुपकारिणों सुरुलितां युक्तार्भतंबोधिनों । मण्या सवंजनप्रियां गुणवतीं टीकां समालोक्य च । भीमस्सुम्वरलालविज्ञनिपुणो योग्यो मतो भाहशां ॥२॥ वंशस्थवृत्तस्‌ इयं हि टीकाध्ध्ययनानु रागिणां विवेषहेतु: प्रतिवादकर्सणां । संवोपकारं सुदं विधास्यति मतं समीखीनमनारतं सम ॥४॥ अथं--अभी तक किसी भी विशिष्ट विद्वान ने श्रीमत्सोमदेशसूरि के 'नोतिबाक्यामृत' ग्रन्थ की, जो कि सार्थक नामशाली है, चित्त को प्रमुदित करनेवाली भाषा टीका का सुन्दर प्रणयत नहीं किया ॥१॥ जन-समूह को 'नीतिबाक्याभृत' के ज्ञान के बिना, अर्थात्‌-नैतिक ज्ञान के बिना सदा भज्ञानी देखकर सौम्य प्रकृतिशालो भीमत्सुन्दरलाक शास्त्री द्वारा ऐसी भाषा टीका का ललित प्रणयन किया गया है, जो कि ग्रन्थ कां सही अथं विशेष रूप से निरूपण करने में तत्पर है गौर भावायं प्रकट करने की क्षमता रखती है। जिस टीका की समक्नाते की कला देखकर निस्सन्देह हमारे चित्त में विशेष आल्हाद (हषं) हो रहा है ।\२॥ हस प्रशस्त कायं संबंधी प्रचुर परिश्रम और टीकाकार की विदत्ता देखकर एवं जन-समूह्‌ का उपकार करनेवाली, नवीन, स्वंजन-समूह को प्यारी गौर गुणशालिनी भाषा टीका देखकर भोचुन्दररारुजी शास्त्री विद्वानों में निपुण हैं और हम सरीले विद्वानों द्वारा सुयोग्य विद्वान লাল লন ই) हमारी यहू समीचीन व निष्चित मान्यता है कि यह भाषा टीका, इसके अध्ययन करने मे घनुराग करतेवारो के ज्ञान मे निमित्त होगी तथा वाद-विवाद करनेवालों या वक्तृत्व कला सीखने वारो का सदा हढ़ उपकार करेगी 11৮1




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