राजस्थानी - वीर - गीत - संग्रह भाग - १ | Rajasthani-veer-geet-sangrah Part-i

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Rajasthani-veer-geet-sangrah Part-i by फतहसिंह - Fathasingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ४७ नागद्रहा, चित्तौडां तथा भाटियों के लिए माडेचा दाब्दो का प्रयोग मिलता है। इस प्रकार स्थान वाचक णब्दो द्वारा भी योद्धा का परिचय प्रकट किया जाता है । कथन की स्पष्टता के लिए बृंदी के महाराव घत्ुद्याल हाडा का एक गीत उद्घृतत किया जाता है। इस गीत मे दान्रुघाल के लिए प्रथम द्वाले में सत्ता, द्वितीय मे सुत नाथ, तृतीय मे बू. दी त्ण राय प्रौर चतुर्थ में भोज बीजे का प्रयोग हुमा है । गीत में देखिए- तरंग सार घारां तणी निहूंग छवतां तरठ, घरहरे गाज श्राघाट घोखें । ऊफर्ण सेन दिखणाघ वाला उदघि, 'सता' श्रगस्ति पी कवण सोखे ।1९॥। लोहरी लहरि नभ गहर परसे लगस, वार चब्रघार तिण बार दीधा ॥ विलवें बार समराथ जछ दढ विगरि, कम सुत जेमि 'सुतनाथ” कीघा 1 २॥ ऊपड़ी बजर गगन दुरसि श्राभड भर घट पाण शभ्राराण रे भाय। याट साहाण समद लक वाठा थया, रीख जेही पिया 'वू दी तणे राय” ॥३॥। भ्राखजे जोड पे वोड झ्रेती श्रस्तर, खग श्रगनि प्रचड ज जेम खीजे । श्रपच लागी समद मुनिन्द ऊतारियी, बारि दछ जारियो “भोज बीजे ॥। गीतों में वरंन क्रम भी कई रीतियों से चलता है । कई गीतों मे तो प्रथम दालो मैं उत्तरोत्तर वर्णन विकसित होता जाता हूं भ्रौर कई गीतों में नायक के कार्यों का वर्णन हो प्रारम्भ के द्वालों में रहता है भौर नायक का नाम अन्तिम हवाले में प्रकट होता है । कतिपय गीतों में प्रत्येक ढवाले मे एक ही भाव की शब्दान्तर से श्राइति रहती है । इस क्रम के गीतों में भावों की पुनराद्रत्ति होती है पर शब्दों की नहीं । प्रत्येक द्वाले में दाव्दो के पर्याय रूप व्यवह्ुत होते हैं । वैसे देखने मे तो भाव पुनरादति परिलक्षित होतों है; किन्तु यह गीत की श्रपनी विज्ञेषता हूं । जिस प्रकार किसी मन्त्र की सिद्धि के लिए सात्रिक प्रारम्भ पे कई दिनों तक नियमित रूप से उसका विधिवत पाठ कर सिद्धि प्राप्त करता है उसी प्रकार एक ही भाव को श्रनेक बार दुहराने से वह भाव श्रोता पर ध्रमोघ रूप से प्रतिफलित हो जाता है । श्रनवरत भाव पाठ से श्रोता पर उसका मन्त्र की भाँति स्थायी प्रभाव उत्पन्न हो जाता हूँ। श्रतएव प्रत्येक ढ्वाले मे एक ही भाव को श्राहत्ति सप्रयोजन रहती हूं । कवियों की मान्यत्ता के श्रनुसार एक ही बात को चार बार दुहराने से गीत का भाव श्रोता के मानस पर स्थायित्व प्राप्त कर लेता हैं । यो उसकी बार बार श्रावृत्ति उदिष्ट लक्ष्य की उपलब्धि के प्रयोजन से की जाती है। इस क्रम का निर्वाह उत्तम कोटि के कवियों द्वारा ही सम्मव होता है । शब्द कोष का भरपूर ज्ञान शरीर वर्णन कौशल में निपुणता इसके लिए श्रनिवायें है । गीतों में चमर्कार उत्पन्न करने एव भावों के सम्यक्‌ रीति से निवेदन के लिए उकतों तथा जथामों का यथोचित व्यवहार श्रावश्यक माना गया है । वयण सगाई शध्ौर जथाएँ एक प्रकार से डिंगल काव्य के झलकीर होते हैं। वयण सगाई तो डिंगल भाषा के काव्यों में सामान्यतः सर्वत्र हो व्यवहत मिलती है । किन्सु जथाश्रो के नियमों का पालन गीत छुदों में ही प्राप्त होता दे । डिगल छदशास्त्र के श्राचा्य मछाराम ने रघुनाय रूपक मे वयण सगाई के भेद, उकतो एवं जधाओओ का सुदर रूप में विवेचन किया है । रघुनाथ रूपक मे ग्यारह




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