हिन्दू विवाह में कन्यादान का स्थान | Hindu Vivah Men Kanyadan Ka Sthan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऊँचा था । वह पुरुषों के बराबर मानी जाती थीं और न केवल राज्य में बड़े पदों पर नियुक्त होती थीं प्रत्युत धर्मगुरुओं और धर्माचार्यों की श्रेणी में भी आ सकती थी । उन के बाहर निकलने पर कोई रोक-टोक न थी और विशेष अवसरों पर पति-पत्नी एक ही मंच पर, एक ही बड़ी कुरसी पर बैठा करते थे । ईसाई धर्म मे ईसा की माता मरियम का स्थान बहुत ऊँचा है । वह पूज्य दृष्टि से देखी जाती है । ऐसी अवस्था मे ईसाइयो मे स्त्री का बहुत भादर होना चाहिए था । परन्तु वस्तुतः ऐसा था नही । ईसाई होने के बाद भी विभिन्न जातियों के आचार-विचार प्राय: पूर्ववतु रहे । बाइबिल मेः ऐसा उल्ढेख है कि आदिनारी ईव से रुष्ट हो कर ईइवर ने उस से कहा था, 'मैं तेरे दुःखों को बढ़ाऊँगा', फिर यदि साधारण मनुष्य ईद्वर का अनुकरण करें तो इस में भाइचर्य ही क्या है ? स्त्रियों को सम्बोधित कर के महात्मा ट्टर्यूलिगन ने कहा है, “तुम नरक का द्वार हो । नर ईव्वर की प्रतिभा है, तुम उस को नष्ट कर देती हो ।” विवाह पवित्र संस्कार है भर पत्नी को भगवान्‌ को साक्षी कर के यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह पति से प्रेम करेगी, उस का आदर करेगी और उस की वशर्वातिनी' रहेगी । ईसाई धर्म बहुविवाह की आज्ञा नही देता परन्तु फिर भी पुरुष को बहुत-सी सुविधाएँ है । जैसे आचरण से स्त्री तत्काल ही पतित ठहरा दी जायेगी बैसा यदि पुरुष करे तो उतनी कड़ाई नहीं बरती जाती । तलाक़ भी पुरुष को जल्दी मिछता है । अरबों में भी कभी लड़की का दर्जा बहुत छोटा माना जाता होगा और > वह विवाह आदि के विषय मे पिता की इच्छा के अधीन मानी जाती होगी । कुरान और हदीस में इस की ध्वनि मिलती है । आयशा के अनुसार जो स्त्री अपने पिता की स्वीकृति के बिना विवाह करती है, उस का विवाह प्रस्य नही है । अबू हरैरा लिखते है, “एक स्त्री दूसरी स्त्री का दान विवाह में नहीं समाज में खियों का स्थान रु २




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