अनासक्ति योग और गीता बोध | Anasakti Yoga Aur Gita Bodh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ शढ] परन्तु फलत्याग के महत्व का छन्दाज़ा करते डुए गोताकार के मन में कया विचार थे, उसने अद्िं सा की सयादा कहाँ निश्चित की थी; इस पर हमें , विचार करने की 'छावश्यकता नहीं रददीं । कवि महत्त्व के सिद्धान्त संसार के सम्मुख उपस्थित करता है, इससे यदद 'झर्थ नहीं निकलता कि वदद सदा 'छपने उपस्थित किये हुए सिद्धान्तों का महत्त्व पूर्णरूप से जानता है या जानकर सब का सब भाषा में उपस्थित सकता दै । इसमें काव्य शर कवि» को सदिसा है । कवि के 'र्थ का अन्त दी नहीं दै। जेसे का, येसे दी सहावास्यों के थे का भी विकास छोता नही रहता है। भाषाओं के इतिद्ास की जाँच कीजिए न्तो होगा कि झनेक महान शब्दों 'के शर्थ नित्य नये दोते रहे हैं । यद्दी वात गीता के थे फे सम्बन्घ में भी दै । गीताकार ने स्त्यं मद्दान रूद़ -शब्दों के झथे का विस्तार किया है । यह बात गीता को ऊपर-ही-ऊपर देखने से, भी मादम हो जाती है । -गीतायुग के पदले कदाचित यज्ञ में पदु-दिंसा मान्य रददी -हो, पर गीता के यज्ञ में उनकी कहीं गन्ध तक नहीं है । उसमें तो जप-यज्ञ यज्ञों का राजा है। तीसरा /घर्वलाता है कि यज्ञ का ये हे मुख्यतः परोपकारार्थ का उपयोग । तीसरे और चौथे अध्याय को




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