अनुभव - प्रदीपिका | Anubhav - Pradipika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.01 MB
कुल पष्ठ :
90
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्ु शनभष परीपिकां
रामुचन्द्र जिन पुण्य उदय ब्दै ते सुझती जन ' धन न चहैं ।
भवबन्धनतें सुक्त न होवहिं। विविधि क्लेश दुःखादि सहैं ॥ ३॥
घन के आंतरिक गुण ।
धन संचय की नहिं कछु मेधा करत करत शत जन्म मरै ।
जेहिं कर्म को अन्त न कब हु वधि न जाकी जानि परे ॥
जो ब्रिकाल मैं व्है दुखदायक सदूविदया को मूल हरे ।
'अस छुपंथ मैं बिना अंन्ध जन कही सुजन कब्र पॉवधरे ॥
रमचन्द्र जे जन सुख चाहहिं ते धन हित घिक्कार कहूँ ।
भवबन्धनतैं मुक्त न दोव्हिं विविधि क्लेश दुःखादि सहैं ॥ १॥
'ावत जात रत दुखदायी सुख की जासें गघ नहिं ।
सोहु प्राणतें प्रिय समुकत हैं. पूण अबिधया फैल रही ॥।
जाने अधिक और का ब्दे तो जो धन जातो संग कहीं ।
दुगति दायक होय जनन हित पस्यो रहै सो आप यहीं ॥
सुख शान्ती को मूत्र विनाशत जन शुमेच्छु नर्दि ताहि चहैं । -
भवबन्धत तें मुक्त न दोवहि विविध छेश दुःखादि सहूँ ॥९॥।
देवेच्छित नर तन अति दुलभ परम 'अमोलक श्रायु यहै । :
मणि सोतिनते पलपल महँगी धनदित ताफूं खोय रहें ॥।
छूकर फिरत पेटद्वित' घरघर कहीं टूक कहिं दंड सहे । -
श्यों पामरहू फिरै भटकती कब न समता शान्ति लहे ॥ ,
रामचन्द्र विकधिक शअस धनदिन सद्गति जाते दूर ग्है 1 .
अवभन्थनते मुक्त दोवेदि विदिव छेश दुःखादि सह ॥३॥
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