अनुभव - प्रदीपिका | Anubhav - Pradipika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्ु शनभष परीपिकां रामुचन्द्र जिन पुण्य उदय ब्दै ते सुझती जन ' धन न चहैं । भवबन्धनतें सुक्त न होवहिं। विविधि क्लेश दुःखादि सहैं ॥ ३॥ घन के आंतरिक गुण । धन संचय की नहिं कछु मेधा करत करत शत जन्म मरै । जेहिं कर्म को अन्त न कब हु वधि न जाकी जानि परे ॥ जो ब्रिकाल मैं व्है दुखदायक सदूविदया को मूल हरे । 'अस छुपंथ मैं बिना अंन्ध जन कही सुजन कब्र पॉवधरे ॥ रमचन्द्र जे जन सुख चाहहिं ते धन हित घिक्कार कहूँ । भवबन्धनतैं मुक्त न दोव्हिं विविधि क्लेश दुःखादि सहैं ॥ १॥ 'ावत जात रत दुखदायी सुख की जासें गघ नहिं । सोहु प्राणतें प्रिय समुकत हैं. पूण अबिधया फैल रही ॥। जाने अधिक और का ब्दे तो जो धन जातो संग कहीं । दुगति दायक होय जनन हित पस्यो रहै सो आप यहीं ॥ सुख शान्ती को मूत्र विनाशत जन शुमेच्छु नर्दि ताहि चहैं । - भवबन्धत तें मुक्त न दोवहि विविध छेश दुःखादि सहूँ ॥९॥। देवेच्छित नर तन अति दुलभ परम 'अमोलक श्रायु यहै । : मणि सोतिनते पलपल महँगी धनदित ताफूं खोय रहें ॥। छूकर फिरत पेटद्वित' घरघर कहीं टूक कहिं दंड सहे । - श्यों पामरहू फिरै भटकती कब न समता शान्ति लहे ॥ , रामचन्द्र विकधिक शअस धनदिन सद्गति जाते दूर ग्है 1 . अवभन्थनते मुक्त दोवेदि विदिव छेश दुःखादि सह ॥३॥




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