लोक - जीवन | Lok - Jivan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मरणोत्तर जीवन की कल्पना श्५ यांर किये जाते है उन्हींका नरक मे थोढ़े-चहुत सुधार के साथ आरोपण हुआ है। यहाँ के सुखोपभोग में जिस प्रकार रोग; जरा ओर मरण वाधक दे, उसी प्रकार किसीको सताने की हृविस में भी एक बाधा है । मारनेवाढ़े मनुष्य को कव थकावट माछम होगी ओर कच रहम भा जायगा; यह नहीं कहा जा सकता, एक तो यही बड़ी रुकावट है । छेकिन इस बारे में मन ओर शरीर सहते-सहते उसके आदी पड़ सकते है; किन्तु मोत-दनि ओर हिरस्कार के अतिरेक से जिन्हे सताने देना है वे वेसुध हो जायें या मर भी जायें तो उसका कया इछाज ? दोनों तरह यहदद हमारी पहुँच से वाइर की वात है, इसका कोई उपाय नहीं । लेकिन नरक में ऐसी कठिनाई नहीं है । वहाँ के यमदूत कामकाजी होने के कारण उन्हें थकाबट, परेशानी या रहम की रुकावट ही नहीं पड़ सकती । ओर वहाँ की यातनाये चाहे जितनी भयंकर हों तो भी मनुष्य न तो बेसुध दोकर पड़ जाता दे ओर न ख़त्म दी हो जाता है । स्वर्ग-नरक की लोकरूढ़ कल्पना साधारण मनुष्यों के अनुभवों पर से ही खड़ी की गई है, ध्तना समझ ढेने के बाद उसका कोई मूल्य नहीं रहता । परन्तु मन की ऐसी प्रदृत्ति कायम रइती है कि मनुष्य-जीवन से उंचे दर्ज का कोई जीवन होना चादिए, इसी प्रकार मनुष्य जीवन से हीन; शर्थशून्य ओर विशेष सन्तापदायक जीवन भी होगा ही । इसछिए मरणोत्तर जीवन, पारछोकिक जीवन, स्वर्गछोक; सृत्यु आदि क्या है; यदद अपने मन मे एकबार सोचने की इच्छा मनुष्य जाति को बारम्बार होती है । एक देह छोड़ने के बाद तत्काछ. अथवा काठान्तर में; इसी प्रथ्वी पर या अन्यत्र; मनुष्य-कोटि में या




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