जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा [शंका समाधान] [दूसरा खण्ड] | Jaipur (khaniya) Tatvacharcha [Shanka Samadhan] [Volume 2]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28.85 MB
कुल पष्ठ :
482
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शंका ६ और उसका समाधान ३८१
'. सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतो स्वभावस्य प्रतिवन्धकं किछ॒मिथ्यात्वसू; तत्तू, स्वयं करमेंब । तदुद्यादेव
ज्ञानस्य सिथ्यादषटिट्वमू । श्ञानस्य मोक्ष हेतोः स्वभावस्य प्रतिवन्धकमज्ञानत्वसू, तचु रुवयं कर्मेंच । तदठुद्या-
देव जशानस्याज्ञानत्वसू । 'चारित्रस्य मोक्षहेतो: स्वभावस्य प्रतिवन्धक। किछ कपाय:, तत्तु स्वयं कमैंच ।
तदुद्यादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम् । अत: स्वयं मोक्षददेतुतिरोधाधिभावत्वात्क्म प्रतिषिदूधम् ।
-समयसार टीका परृ० २४६
इसी प्रकार समयसारकी बन्घ अधिकारकी गाथा २७८-२७९ भी इस विपयमें मनन करनेयोग्य है-
जह फलिहमणी सुदूधो ण सयं परिणसमइ रायसाईहिं ।
रंगिज्दि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दब्वेहिं ।।२७८॥।
एवं णाणी सुदूधो ण सये परिणमद्द रायमाईहिं ।
राइजदि भण्णेहिं हु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥२७९॥
अर्थात््--जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होनेंसे रागादिकरूपसे ( ललाई श्रादि रूपसे ) अपने आप परिणमता
नहीं है, परन्तु अन्य रकतादि द्रव्योंसे वहू रक्त ( छाल ) आदि किया जाता है। इसी प्रकार ज्ञानो भर्थात्
आत्मा शुद्ध होनेसे रागादिरूप अपने आप परिणमता नहीं हैं, परन्तु अन्य रागादि दोषोंसे वह रागी आदि किया
जाता है ॥२७८-२७९॥
यदि अभ्युपगम सिद्धान्तसे श्री पं० फूलचन्द्रजीकी बातकों मान लिया जाय कि कार्य केवल उपादानसे ही
होता है और निमित्त केवल उपस्थित ही रहता है तब भी विचारणीय यह हो जाता है कि बह मिमित्त कैसे
बन गया ! उपस्थित तो उस समय उसी तरह अन्य पदार्थ थी हैं और फ़िर यही निमित्त हैं और वे पदार्थ
निमित्त नहीं हैं इसमें क्या नियामक है ।
१, श्री पं० फूलचन्द्जी कुछ भी कहें, किन्तु उनको उसके समर्थनमें प्रमाण तो उपस्थित करना
ही होगा । यदि उनकी ऐसी ही मान्यता है कि निमित्त कारण केवल उपस्थित ही रहता है भर उपादानकों
उपादेयरूप होनेमें या दाक्तिको व्यक्तिरूप होनेमें कुछ व्यापार नहीं करता, ऐसी स्थितिमें उनको मान्यता
एक चिवादस्थ वात हो जाती है । और इसके समर्थनमें प्रमाण उपस्थित करना ही चाहिये ।
२. दूसरी बात यह है कि ऐसी परिस्थितिमें भर्थान्त् उपादान गौर निमित्तकी परम्परामोंको परस्परमें
असम्बन्धित मानने पर बन्धादि तत्त्वोंकी व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी । आचायें श्री अमृतचन्द्र सुरिने भी
ऐसा ही स्वीकार किया है--
तथान्तरंष्व्या ज्ञायको भावों जीवो,जीवस्य विकारहेतुरजीव: ।
--समयसार गा० १३
स्वयमेकस्य पुण्य पापासव-संब र-निजरा-बन्घ-मोक्षाजुपप ते: ।
-समयसार गा० 9३
अर्थात् भीतरी दृष्टिसि देखा नाये तो ज्ञायक भाव जीव तत्त्व है, जोवके विकॉरका हेतु अजीव पुदुगल है ।
क्योंकि अकेले जीव तत्त्वके पुण्य-पापादि, आस्रवरूपता, संवरपना, निर्जेरा भौर वन्ध व मोक्ष नहीं
हो सकते । .
३, तीसरी बात यह है कि असंख्यातप्रदेसी जीवमें शरीर परिमाणके छोटे बड़े होनेंसे भाकारमें छोटा-
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