बुधजन सतसई | Budhjan Satsai

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Budhjan Satsai by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देवाचुरागशतक । ३ आन थान अगर ना रुचै, मन राच्यो तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायके, गहे काच को हाथ ॥ १५ ॥ चंचल रहत संदंव चित, थक्‍्यों न काह ठोर । अचल थया इकटक अब, लग्यों रांवरी ओर ॥ १६ ॥ मन मोद्ां मेरा प्रभू , सुन्दर रूप अपार । इन्द्र सारिखे थकि रहे, करि करि नेन हजार ॥ १७॥ जेसें भालुप्रतापतं, तम नासें सब ओर | तेसें तुम निरखत नस्यों संशयविश्रम मोर ॥ १८ ॥ धन्य नेन तुम दरस ठखि, धनि मस्तक लखि पॉय । श्रवन धन्य बानी सुनें, रसना धनि गुन गाय ॥ १९ ॥ धन्य दिवस घनि या घरी, धन्य भाग मुझ आज । जनस सफल अत्र ही भयो, बंदत श्रीमहाराज ॥ २० ॥ लखि तुम छवि चितचोरको, चकित थकित चित चोर । आनेंद पूरन भरि गया, नाईिं चाहि रहि और ॥ २१ ॥ चित चातक आतुर लखें, आर्नेदचन तुम ओर चचनासत पी दप्त भा, ठपा रही नहिं आर ॥ २२ ॥ जेसो बीरेज आपमे, तंसा कहूँ न ओर । एक ठार राजत अचल, व्याप रहे सब ठार ॥ २३ ॥ यो अद्भुत ज्ञातापनो, लख्यां आपकी जाग । भी बुरी निरखत रहो, करी नाहिं कहूँ राग ॥ २४ ॥ १ '्ञापकी । २ पणक्रम ।




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