सुखसागर भंजनावली | Sukhsagar Bhajanawali

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Sukhsagar Bhajanawali by ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद - Brahmachari Shital Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) इन्दींसे करके अब म्रीती, वना सेवक हूं में रुचिसे ॥ २ ॥ मैं हूं सदन सुख रूपी, में हूं झत सत्य जनरूपी 1 ल्‍खा सामान्य दो ज्ञायक, चना है नित्य मैं रुचिये ॥ ३ ॥ समीको आपसा जाना, सभीकों झा पहचाना | मिठाकर सम सुखोदधि कर, नहीं रमता हू में रुचिसे ॥ ४ ॥! गज़ल, चखो नित ज्ञान अमृतको, नो सब दुख दुर करता दै । परम कल्याणका भानन, बढ़ीं आनद करता है ॥ टेक ॥। मरम भव दुख भरनमें बहु, उठाए खेद दुखदाई | सरम करता सुलासन पर, वहीं आराम करता दे॥ ६ ॥ करमके फंदमे पड़कर, करे जो भाव पर रूपी 1 उन्हींपे बांध कर्माको, भवोके दुख भरता दे ॥ २ ॥ लखो निन रूप सदू ज्ञानी, नहा बहता सुखद पानी | उसीमें दृष्टि घर अपनी, नगतडी देख करता दे ॥ सफल कर नन्मको अपने, नो दू चाहे है सुख आातम | सुखोदधिमें रमन करना, सभी जेनाल दरती है ॥ ४ ॥ गजल, करे भक्ति सुआातमकी, नहां निर्वाण गुण होता 1 परम कल्याणमय मूरतसे, दशन नित्य झुम होता ॥ टेक ॥! वही संसार तारण है, वददी भव दुख निवारण है । - चढ़ी गुण सार कारण है, कि निसमे सर्म नित होना ॥ ९ ॥ करम गिरि चूर करनेको, बढ़ी है वलत्तम निषा वह सुहम दे उसीसे दी, हृदय मदिर सफल होता ॥ २ ॥।




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