उपदेश - सागर | Updesh - Sagar

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Updesh - Sagar by चिरंजीलाल - Chiranjilal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ उपदेश सागर २ श्र खज्ञन पुरुष विचार करेंगे विनती ख़ुनकर खारी । अहंकारी पुरुप दुखी होंयगे निन्‍्दा खुनकर भारी ॥ २९ ॥ घनी हो गुणी हो चतुर हो बलकारी हो अहंकारी । इन पुरूषों का असाध्य रोग है न हों प्रसन्न मुरारी ॥ २३ ॥ जिनका रोग जवर है सिकित्सा नद्दि करना राय हमारी । बड़े बड़े घुद्टमान से हारे हमरी विनती कौन बिचारी ॥ २४ ॥ दुर्योधन को यही रोग था वड़े बड़ों की हिम्मत हारी । तेसे देख लेव इसी रोग ने सब कुटुंब की मिट्टी विगारी ॥ २५ ॥ तुमको नाहीं इस शरीर को अस्यो, सबल अहंकारी । इस रोग के बचने के हिंत श्री हरि को नाम उचारी ॥ २६ ॥ सरकार चुनत है. मेस्वरों को तुमको चुने मुरारी । उपकार करन को सम्पति सॉपी विश्वास किया है भारी ॥ २७ ॥ उपकारी खुद सांवलिय जिन नृसिंह तन है धारी । प्रदलाद भक्त की रक्षा हित खम्म फार हिरनाकुश मारी ॥ २८ ॥ कंस भारी उपद्रब कीना प्रजाको 'दुख दिया भारी । फोरन मारन हेतु पघारे दौनन आप उदारी ॥ ९६ ॥ काली नाग धसा यमुना में दुख देता था भारी | गेंद चहाने 'घसे यमुना में फोरन नाग नाथ डारी ॥ ३० ॥ १ सबसे बड़ा अहंकारी डाकू का वर्णन । १--'राधघेइ्याम अदंकारी डाकू का दाल खुनिये मजुप्य की क्या दशा कर देता है यह' डाकू वह है जो किसी जमाने में देत्य राक्षस वंश के यहां मन्त्र रूपमैं रहता था और इसके वल से इन चंशों में वड़े भारी नशाकी वेद्दोशी रहती थी बेहोशी तो सबही नशोमें होती है दयोंकि एक छोटा सा नशा शरावका ही देखो कितनी चड़ीं पेहोशी छाता है कि कुछ नहीं सूफ़ता | यानी मोरी पनारों का स्वाद चखना यानी धघर्में रहित काये प्रिय छगते हैं और बोल चाल में भी संबरी सहलियत किनारा




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