धर्म और जा॑तीयता | Dharm Aur Jatiyata

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देवनारायण द्विवेदी - Devnarayan Dwivedi

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श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र] चर्म टू जतियना 'जातियताड ज्यादा हो जाती है शीर मनजुष्यकी उन्नतिकी विरोधिनी धर्म- नाशिनी सारी राच्तती शक्तियां चर्सित श्रीर चलयुक्त होकर स्वार्थ, क्रूरता पवं श्रदकारसे ऐथ्यी-मंडलको श्वाच्छादित कर लेती हैं ध्नीश्वर जगतमें ईश्वरका सूजन श्ारम्भ करती है, तब भारार्तत श्र्थात्‌ पाप श्र श्रत्याचारके चोमकसे व्याफुल पृथ्यीके दुम्खको दूर करनेके लिये साक्तातू भगवान श्रचतार लेकर 'श्रथवा श्रपनी विभ्ूति सानव शरीरमें प्रकाश कर हसारा घर्म-पथ निप्कंटक करते है । व्यक्तिगत 'घर्म, जातिका घर्म, चर्णाश्रिन 'घर्मे 'प्रीर युग धर्म- का मानना सनातन धर्मका उचित रुपसे पालन कफरनेके लिये सदैव रक्षणीय है श्रर्थात्‌ व्यक्तिगत धर्म, जातिका धर्म, चर्णाश्रित घर्म 'घौर युग धर्मकी रक्ता करनेखे दी सनातन थर्मकी रक्षा होती है। किन्तु इन श्नेक तरदके धर्मों में चुद व्ौर मददान दो रूप हैं। जुद घ्मकों मद्दान धर्ममें मिलाकर घ्मौर संशोधन करके कर्मारम्भ करना श्रेयसकर है । व्यक्तिगत घर्मफ्रों जाति-घर्मके 'ंकाशरित न करनेसे जाति नए दो जाती है श्रीर जाति-घर्मका लोप दो जानेसे व्यक्तिगत धर्म के प्रसार- का क्षेत्र पीर खुयोग भी नए दो जाता है । इस प्रकार जाति- 'घर्मका नाश करनेघाले धघर्मसंकर श्रपने प्रभावसे जाति शरीर व्यपने दल ( संक्रफारी गण ) दोनोको दारुण टुःख-कुरादडमें पमझ फर देते हैं। जव तक जातिकी रक्ता नहीं दोती, तव सुहू९ व्यक्तिकी: उन्नति नद्दीं दोती । जातिफी. रक्षा, फरनेसे 1




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