संत कबीर | Sant Kabir

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Sant Kabir by डॉ० रामकृष्ण शर्मा - Dr. Ramakrishn Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“संत कोर श्र कबीर को अब याद आया कि उसे बाजार क्यों भेजा गया था। “रहने दे अद ।” मां ने नाराज होकर कहा, “इतनी रात गए कहां जाएगा ? हर बात भूल जाया करता है। तुझसे तो कुछ भी मंगाना या कहना बेकार है । कटोरी कहां है?” कबीर सकपकाया-- कटोरी तो वह उसी गली में खो आया या ; हंसता हुआ बोला, “बरी मां, हू ही तो कहती है कि तेरा कंबीरा पगला है । बस, पागल तो भुलवकड़ होते ही हैं ।” “हां, हां, पागल तो है ही तू । चल, हाय-मुंह थो ले । मैं अदा जलाती हूं, उसी की रोशनी में खा लेना।” मां ने झिड़हा। कबीर हंसता हुआ बाहर चला गया । उसने अपेरे में हो 'रटोलकर लोटा दूढ़ा । पानी भरकर हा थ-पुंह घोया । फिर अन्दर था बैठा । लोई आई थी ।” नोमा ने थाली उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा । त तेरे लिए चटनी भी लाई थो । बड़ी देर तक इन्तजार करती रही बेचारी । फिर घर चलो गई ।” नीमा ने कहा । कवीर चुप रहा । ,. “वहततेरा बड़ खपाल रखती है।” नीमा फिर वोली, “सोचती हूं कि उसके अन्वा से बात करू ।” कबीर चुपचाप सात रहा । “चुप बयों है रे, दोलता बयों नहीं?” नोभा ने उसकी च्युप्पो से नाराज होकर कहा, “करू उसके अब्दा से दात*-'लोई से तरे विवाह की 7 *पमैं विवाह नहीं करूंगा, मां !” कवोर ने मुह सोसा । ब्क्यों 7” “मा, हम गरीद हैं । अपना ही युारा नहीं चसा शबते ।




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