भारतीय काल - गणना | Bhartiya Kal Ganana

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Bhartiya Kal Ganana by देवकीनंदन - Devkinandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्ं आरशरतीय काल-मणना पट झाघु्फितम यन्त्रोंमें ताप क्रम दवाव श्वौर घुद्ध वाधुके झंमिकानिक कलम साधन एवं यन्न्नोंसे सुसलित होकर भी मानव २६ भीलसे अधिक ऊंवाईपर नहीं पहुंच उद् दे । ( राकेट द्वास चन्द्रलोककी यात्राके प्रयोग अभी परीक्षणावस्थामें ही हे ) उत्कायें ४० मील सीने श्ञानिपर पृथ्वीकी शोर श्याकर्पित-सी हो जाती हैं । शास्रॉमें सात प्रकार॒की हवाएं मानी गई हैं । जैसेः-- ावद प्रवह उद्धह संव सुबह परिवदद और परावह । ये प्रथ्वीसे १९ योजन या ६० मील ऊपरतक हूं । मेघ य विद्युत्‌का उन्बतम स्थान भी यहींतक सीमित है । कुछ विद्वान यह ऊँचाई ४५ मील भी मानते हैं और यहींतक पृथ्वीकी ध्याकप्रंण शक्ति है । पाशात्य विद्वान वायु-मण्डलका विस्तार २०० मीलतक मानते हैं । इसके ्यागे श्राकाशका विस्तार वर्णनातीत है । जिसमें शानन्त कोटि प्रकाश पिण्ड हूं जो एक दूसरेसे श्रसंख्य योजनकी दुरीपर स्थित हैं । उक्त समस्त घ्रकाश पिण्ड श्रथ्वी जल तेज चायु घर आकाश इन पांच तत्वोंसे निमिंत है शोर पांच तत्त्व सूक्ष्म रूपसे इनके मेध्यके ध्याकाशमें मिश्रित हैं । इन पांच त्तच्वोंमें छ्याकाशतत्त्व मुख्य दे । जिसका रह शाल्रोंकि श्रनुसार श्रहर्निश तीला ही रष्टिगोचर होता है । किन्ठु श्याघुनिक वैज्ञानिक श्ञाकारहीन ाकाशका शपना कोई रह निश्चित ही नहीं कर सके हैं । उनमेंसे छुदके मत्ताहुसार श्माकाशका रन वास्तवमें वायुका ही रंग दै । इस स्पश श्थवा दवावसे सिद्ध कर सकते हैं कि वायुका श्राकार दे । किसी यन्यमें वायु भरनेसे भी उसका श्कार सिद्ध होता दे । किन्तु वायुका रक्न हरा दे । इसी प्रकार कुछ विद्वीनोंने इस रन को आकाशमें स्थित जलकणॉका रह माना दै किन्तु जलक्ॉका रन सफेद होनेके कारण यह भी तके संगत नहीं जैचता । इसी प्रकार शनि व श्थ्वी तत्त्वका रह लाल और पीला भी झकाशमें नहीं हो सकता है । श्तः विज्ञान एवं तक द्वारा थ्ाधु- निक विद्वान इस रहके सम्बन्धमें एक निद्चित विचार नहीं बना सके हैं । थी हमारे प्राचीन शा्रॉमें दध्वी जल वायु तेज श्र व्याकाशके जो रह निश्चित किये गये हैं वे तके द्वारा निष्चित व प्रत्यन्न उदादरणों द्वारा प्रतिपादित हैं । लैसेः--पंचतच्वों सें यह एक स्वासाविक गुण द कि वे व्पन सम्पकेमें ्ानिवालि प्रत्येक पदार्थकों श्पने श्रचुरुप रद्का यना देते हैं । अभिमें डाला गया पदार्य मिरूप होनेसे पहले श्रम्चिके रघ़रे पस्णित होता ईै । यथाः--व्यमितत्त्वका लाल रद अंगारोंसे स्पष्ट दिखाई पढ़ता ट्र । किसी चीजसे फूटा हुआ श्रकुर परथ्वीसे निकलते समय प्रथ्वीतत््वके पीछि रेंगसे युक्त होता इ। किन्तु कुछ कालके उपरान्त ही वायु रकों सन्निदित कर पौथे+ रपमें लहलद्दा उठता £ जलके जमने व उसे घाराके रुपमें प्रवाहित करनेपर उसका प्राक डक लदां उठता दै। तिके सफेद रह प्रकट होता है। बात अत्यन्ष दष्टिगत ध्याकाराकी नीलिमा भी घाकाश त्तत हमर 3. सार मण्डढछ पका भाकृतिक रय़ ही टू यू मह्माण्ड खण्टकों ही श्याघुनिक-वैशञनिक सौर-मण्डल कहते हैं | थे लोग है ज अपटला श्थ हि




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