शरत् - साहित्य भाग १२ | Sharat-sahitya part 12

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धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

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रामचन्द्र वर्मा - Ramchandra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ रमा [ दूसरा लदी--बहुत बढ़िया बने हैं बाबा । ( खाने लगती है। )) दीनू--( कुछ हँसकर और सिर हिलाकर ) अरे तुम लोगोंकी पसन्दका क्या कहना है ! बस मीठी हुई कि चीज़ बढ़िया हो जाती है। हाँ जी, हलवाई, तुमने यह कढ़ाही क्यों उतार दी ? क्यों गोविन्द मइया; अभी तो कुछ धूप है, तुम्हें नहीं मादूम होती ? हलवाई--जी हाँ, है क्यों नहीं । अभी बहुत दिन बाकी है। अभी सन्ध्या पूजाका ..... क ः दीनू--अच्छा, एक सन्देश जरा गोविन्द भइयाको तो दो, जरा चखकर देखें कि तुम लोग कलकत्तेके कैसे कारीगर हो... [ हलवाई गोविन्द और दीनू दोनोंको सन्देश देने छगता है। ] दीनू--उअरे नहीं नहीं, सुझे क्यों दे रहे हो ? अच्छा, आधा ही देना, आधेसे ज्यादा नहीं ! ( हुका रखकर ) अरे ओ षष्टीचरण, जरा जल तो छा भइया, हाथ धो हैँ । रमेदा--( अन्दरकी ओर देखकर ) षष्टी, जरा अन्दरसे चार-पौंच तदतरियाँ तोले आ। ं गोवि०--सन्देश देखनेसे ही मालूम होते हैं कि अच्छे बने हैं । क्यों जी दठवाईं, मातम होता है कि पाक कुछ नरम ही रखा । >क हलवाइ--जी हाँ, इस घानका पाक कुछ नरम ही रखा है। गोवि०--( हँसकर ) अरे हम छोग जानते हैं न । आँखसे देखते ही बतला सकते हैं कि कौन-सी चीज कैसी बनी है । हछवाई--जी आप छोग नहीं संमझेंगे तो और कौन समझेगा ! [ पष्टीचरण और उसके साथ एक दूसरा नौकर तदतरियाँ और पानीके गिलास आदि लांकर रखता है। हलवाई सन्देशका थाछ ले आता है और न्राझमणोंकी तदतरियोंमें परोसने छगता है। सब चुप हैं, किसीके मुँहसे कोई बात नहीं निकछती । लड़के-लड़कियाँ, घर्मदास, दीनू , गोविन्द सब निगलने लगते हैं । देखते देखते सारा थाल साफ हो जाता है । 1 पा हते हो ? . « [घर्मदासका कण्ठ-स्वर :सन्देशके ताछकों मेदकर ठीक तरहसें बाहर नहीं निकला, लेकिन फिर भी पता चल गया कि दीनूसे उनका मत-मेद नहीं है। ] दीनू--हाँ; बेशक कछकत्तेंका कारीगर है। क्यों धर्मदास मइया; क्या दाकयामस्थ्यप्मकार । हा




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