सरस्वती | Sarswati

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Sarswati by देवीदत्त शुक्ल - Devidutt Shuklaश्रीनाथ सिंह -Shri Nath Singh

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देवीदत्त शुक्ल - Devidutt Shukla

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श्रीनाथ सिंह -Shri Nath Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संख्या १ केला-सम्बन्घी कुछ स्वतन्त्र विचार हि की फीकी की एफ फीकी फीकी फीकी की फीकी की फीकी फीकी की वी पी की फीकी फीकी फीकी एकीनवी कक कीफीफी वी की पी वी की की न्के लेकिन कलाविदू पुरुष को वे बड़ी भोंड़ी ओर कला-शून्य जान पढ़ती हैं । ता कला का शब्द भी सापेक्षिक है और इसका व्यवहार उसी के अनुसार किया जाना चाहिए | शेक्सपियर के जिन नाटकों ने अँगरेज़ी-साहित्य का मस्तक ऊँचा कर दिया कलाविदू टार्सटॉय की दृष्टि में वे जंचे ही नहीं । क्योंकि ऋषि टारसटॉय जिस चीज़ का कला समकते थे उसको उन्होंने उन रचनाओं में नहीं पाया । ऐसा क्यों हुआ ?. इसका उत्तर यह है कि ऋषि टातस- टॉय ने कला के साथ किली दूसरी ओर वस्तु का समावेश कर लिया ।. जेसे एक मनुष्य दिल बदलाने के लिए ताश के पत्तों का हुनर--अपने हाथ की सफाइ --इस ढंग से दिखलाता है कि देखनेवाले दातोंतले उँगली दबाने लगते हैं वे श्राश्चये में डूब जाते हैं उनका मन बहलता है।. थिएटरों में कई प्रकार के ऐसे हनर--ऐसे तमाशे--दिखलाये जाते हैं जिनकी कला के देखकर दशक द्रत्यन्त प्रसन्न होते हैं श्रोर समकते हैं कि उनके टिकट का दाम कीमत से झ्रधघिक वसूल हे गया । परन्तु महात्मा गान्धी ओर स्वामी द्यानन्द सरस्वती जैसे आ्रादर्श- वादियों को मन बहलानेवाले उन नाटकों खेल-तमाशों ग्रेर ताश-शतरक् की चालों में कोई कला नहीं दिखलाईं देती--वे उसमें सानव-समाज का उत्थान करने- वाली कोई शिक्षा नहीं पाते--इसी लिए वे उनका विरोध करते हैं ओर ऐसे खेलों में मन बहलाना समय का व्यर्थ खाना मानते हैं । श्रादर्शवादियों की जीवन-चर्या में कला के मन बहलानेवाले ऐसे स्वरूप के लिए कोई स्थान नहीं । यहाँ तक तो कला का. सम्बन्ध किसी काम को सफाई भअधवा परिष्कृत रूप में करने के साथ है इसी लिए मानव-समाज के सड्ञठन के समय से ही किसी काम को अत्यन्त कौशल से करनेवाले . लोग कुशल कारीगर कहे जाने लगे।. वे अपने अपने विभाग में साघारण काम करनेवाले की अपेक्षा अपने हाथ के हुनर को बड़ी चतुराई से दिखलाते. थे--वे. उसी . कला के. विशेषज्ञ माने जाते थे ।. जेसे तलवार चलाने की कला कुशल श्रश्वारोही खनिज पदार्थों पर भिन्न सिन्न. अकार की. मीनाकारी बतेन बनाने की कारीगरी रुई अथवा ऊनी कपड़ों पर सुई का विस्मय-जनक काम इत्यादि--ये सब हुनर कला के . अन्तगंत हैं । इसमें सच्चरित्रता शिक्षा भावुकता अथवा ऊँचे दज के उपदेश के लिए काई गुंजाइश नहीं । यह केवल हाथ की सफाई कारीगरी श्रोर व्यावहारिक कुशलता से सम्बन्ध रखनेवाला हुनर है । कला का यही प्रारस्भिक स्वरूप है । प्राकृतिक वस्तुओं का देखकर तथा जीवन-संग्राम में विजय की लालसा के हेतु जिस चतुराई ओर बुद्धिमत्ता का मनुष्य ने प्रयोग किया है उसी गुण ने अपने विकास में कला का रूप घारण कर लिया है । परन्तु जब मानव-समाज में ज्ञान की अधिक उन्नति हुई जब मनुष्य ने श्पने मस्तिष्क का साहित्य ओर सड्जीत से परिष्क्त किया तब वह भी शिल्पियों की तरह कला को अपने चत्र में स्थान देने लगा और उसने श्रपनी कला को परिष्कृत कला कहकर पुकारा । रब तक कला के व्यवहार में भावुकता धघर्म-दीक्षा ओर श्दर्शवाद के लिए कोई स्थान न था उसमें सत्य ओर शिव का काई पचड़ा न था वह केवल सोन्द्य. और व्यावहारिक चतुराई की वस्तु थी। पर जब विद्वान-वग ने कला का अपनाया तब उन्होंने अपने भाई कलाकार शिल्पियें की श्रपेक्षा उसे दूसरा ही. रूप देने का प्रयल किया । इसी लिए झाज इस वेज्ञानिक युग में कला के सम्बन्ध में बड़ा गड़बड़ मचा हुआ है। जो काम शिल्पियां और व्यवहारकुशल पुरुषों के लिए सरल था विद्वद्वगं के लिए वह कगड़े की चीज़ बन गया है । ऐसा क्यों हुआ ? सत्य बात यह हे कि झ्रादर्शवादी पूव॑ से कुशल पश्चिम का मिलन श्ारम्भ हुआ है। पूर्वी ढंग का मस्तिष्क रखनेवाले पार्चात्य विद्वान्‌ भी कला के स्वाभाविक विकास में श्रादर्शवाद का रह चढ़ाना चाहते हैं इसी लिए कला के क्षेत्र में इस प्रकार का मतभेद देखने में झाता है। तभी एक नई समस्या कला के चेत्र में खड़ी हो गई है ।. पुराना पेशेवर कलाकार कभी व्यवहार- . उपदेशक नहीं था और न उसने कभी ऊँचे दजे के आदुर्श- वाद . श्रौर चिश्वबन्घुता के सिद्धान्तों का ही प्रचार




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