हिंदी - काव्य - मंजरी | Hindi Kavya Manjri

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Hindi Kavya Manjri by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११) बिन गुरु ज्ञान भटकि गा बन्दा कहें कबीर सुना भाई साधो इक दिन जाय लेंगाटी भार बन्दा । नानक बिखर गई सब तात पराई जब से साधू संगत पाई। नहिं कोई बैरी नहिं बेगाना सकल संग हमरी बनि आई ॥ जो प्रभु कीन्हों सो भला करि माना यद्द सुमति साधू से पाई । सबमें रम रहा प्रभु एकाकी पंख पेख नानक विगसाई ॥ प्रौढ़काल के उत्तरवर्त्ती कवियों में सूरदास तुलसीदास केशवदास विहारीलाल जायसी रहीम आदि बहुत से हिन्दो- भाषा-विशारद मददालुभाव हैं । ऊपर कहा जा चुका दै कि प्रौढ़काल में कविता-स्रोत की दे धाराएँ हो चलो थीं इनमें लिराकार अद्वैत भक्ति-वाद की धारा पूर्वाध में श्र साकार भक्ति-वाद की उत्तरार्ध में प्रबल थी । सौर काल में भक्तों के प्रेमपूणी हृदय साकार इंश्वर का साक्षात्‌ करने के लिए झातुर हो रहे थे । वे अपने प्रेमी का आँखें की आट में रहना सदन नहीं कर सकते थे उसका राम श्ौर कृष्ण के रूप में लीला करते हुए देखना चाहते थे उसको सातवें समान से उतारकर प्रथ्वी पर लाना चाहते थे । प्रेम भावुकता भक्ति श्रौर प्रतिमा का साथ दड़े पुण्य से होता दै । हमारे सूरदास श्नार तुलसीदास ऐसे ही पुण्यात्मा थे । इस पर भी न्रजभाषा के स्वाभाविक सौन्दर्य ने सोने में सुगन्धि का




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