रानी तिष्यरक्षिता | Rani Tishyarakshita

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Book Image : रानी तिष्यरक्षिता  - Rani Tishyarakshita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ | अशोक स्वयं हस्तक्षेप करते समय राजबन्दी होकर वास्तथिकतासे अवगत हो प्रायश्चित्तताकी त्याग-मुमि तक पहुँच जाते हैं --मावककी कांचनमाला न कि इतिहासकी कांचनमाला--न्याय-निणयनकां एकीथिकार लेकर ही राजनगर पाटलिपुत्र सम्राटके साथ प्रत्यावतित होती है। सम्राट द्वारा अनुमोदित एवं निशांयनके सन्दर्मोमें सर्वागीण प्राधिकृत एक सदस्यीय न्यायपीठकी गरिमापर कांचनमालाकों पहुँचाकर कृतिका प्रखर कवित्व न्यायकी आत्मासे दूर हो जाता है । किसी मामलेके एक पक्षकारको यदि उसी मामलेके द्वितीयक पक्ष- कारके विरुद्ध निणयन-क्षमता दे दी जाथ तो न्यायकी सम्भाव्यता नहीं रह जाती । निर्णायक बना वह सम्बन्धित पक्षकार स्वच्छत्द एवं अनियंत्रित प्रति- शोधमयी स्वेच्छा चारितामें उद्भ्रान्त न्यायके वन्दनीय औचित्यका निर्वाह नहीं कर सकेगा और वह पक्षकार यदि इतनी भावजयी आदर्श प्रेमी हो भी तब भी त्यायकी परम्परा को पवित्र एवं मान्य बनानेके लिए कभी भी सम्बन्धित पक्ष- कारको नि्णायिक- शक्ति प्रदत्त नहीं करनी चाहिए । दृश्य योजनाकी यह समुची उदमावना कुणठाप्रस्त इसलिए है कि प्रबल संवेगाकुला उन्मनी भाव-तंत्री अपनी कांचनमालाके हाथ न्याय सौंपकर मामलेके दूसरे पक्षकार अभियुक्तगण के प्रति अपनी श्रणा हृंक्रति एवं आक्रोशको अधिक सशक्त प्रभाविकता एवं दुर्दान्त प्रचरडतासे व्यक्त करनेके लिए बद्परिकर हो चली है । लगता है यहाँका लेखक निरपेक्ष स्यायमीमाँसी न होकर कॉचन-शिविरका विप्लवी कोई सैनिक ही है जो अपनी नेतृ-राफिके हाथों होता न्याय देखकर अति प्रसन्न हो उठा है । तिष्य- रक्षिताके अत्याचारसे न्याय-अभोप्साकी तटस्थता कुण्ठित एवं प्रतिशोघी भावों ष्ग्गतासे रक्ताभ हो चली है । पर बावजूद उपयुंक्त निर्धारणके जहाँ तक हों सका है न्याय ही हुआ है । हो सकता था सम्राट अशोककी ष्यायपीठिका क़ांचनकी न्यायपीठिका द्वारा धारित दराडसे अधिक कड़ा दरड घारित करती । दूसरे तत्का- लीन सन्द भमिं वैसा दराड उपयुक्त भी है । पर यहाँ भी न्याय-प्रक्रियामें कुछ न्यायिक आपत्तियाँ हूँ । कांचनमाला न्याय करनेके पूर्व अभियक्तोंको आत्म-निवेदनका अवसर नहीं देती जो शुद्ध न्यायकी हृष्टिसे देय हैं । इन आपूृत्तियोंकी उत्तर यह




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