हिंदी ज्ञानेश्वरी | Hindi Gyaneshvari
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37.38 MB
कुल पष्ठ :
564
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
रामचन्द्र वर्मा - Ramchandra Verma
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संत ज्ञानेश्वर - Sant Gyaneshwar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(६ )
उस सुख घाम पर निष्ठा रखो । ईर्वरका भनत करो और इस
मायामप संपारको छोड़ दो । अपने चितमें सदा उस विदानन्दको घारण किये 'रहो
बोर केवल उस अखंड चैतन्य पर ही दृष्टि रखो । वश इसी उपायसे तुम लोग इस
लोकमें तर जाओगे । इसके सिवा तुम लोगोंके लिए और कोई उपाय नही है। तुम
लोग अखंड जितेन्द्रिय होकर रहो । संपारका काम-विद्रोह मत बढ़ाओ । तुम लोग
अपना शरीर वैराग्य और योगमें ही रखो; गौर उसी उप्र निष्कृतिको अंगी कार करो । डक
निवृत्तिनाथ आदि सभी वालकोने और विशेषतः ज्ञानेस्वरने ब्राह्मणोंका यह
निर्णय पूर्ण रूपसे शिरोधायें किया । पहले निवृत्तिदेव और सोपानदेव यह ॒निणंय
माननेमे कुछ सकोच करते थे, परन्तु ज्ञानदेवने उनसे आप्रहपुवेक यह निर्णय मान्य
कराया था । उन्होने यह वात अच्छी तरह समझ ली थी कि' यद्यपि वर्ण, माश्रम और:
जाति आदिके भेद हैं, परन्तु फिर भी वे देखते थे कि हमारे समाजमें ये सब
भेद पुरी तरहसे गौर हृढ़वापूर्वेक प्रचलित हैं; और यदि इनसे सम्बन्ध रखनेवाले
नियमोंका भली भाँति पालन किया जाय तो सामाजिक व्यवहारोमें बहुत सुगमता
होती है । समाजको व्यवस्थित रखनेके लिए उसके नियमों और आज्ञाओं का ठीक
तरहते पालन करना आवइयक है और उन नियमों तथा आज्ञाओंके प्रतिकूल चलना
तथा विद्रोह करना हानिकारक है । और यदि समाजमें किसी प्रकारके सुधारकी
लावष्यकता हो तो वह सुधार समाजमें रहकर और सौम्य तथा नम्र उपायोसे ही
करना उत्तम होता है । और यही सब बातें ज्ञानेश्वर महाराजने उस समय अपने
दोनो भाइयोको बहुत अच्छी तरह समझा दी थी 1
इस प्रकार पैठणके ब्राह्मणोके आज्ञानुसार तीनों भाई ब्रह्मचर्यपुवंक अपने समाज-
में रहने लगे । उन्हीके साथ साथ मुक्ता बाई भी ब्रह्मचारिणी होकर दिन व्यतीत
करने लगी । न्राह्मणोने इन वालकोकी शुद्धिकी व्यवस्था दाक संवत् १२०९ या वि०
सं० १३४४ में दी थी । इसके उपरान्त ये चारो भाई-वहन पैठणसे चलकर नेवासें
पहुँचे और वही रहने लगे ।
कहते हैं कि जिस समय ज्ञानेदवर महाराज नेवासें पहुँचे थे, उस समय वहाँ एक
सो नपने पतिके शावकों गोदमें लिए विलाप कर रही थी । पूछने पर मालूम हुआ कि
उसके मृत पतिका नाम सच्चिदानन्द था । उन्होने चकित होकर कहा--“क्या सतु,
चिदु भौर आनन्दकी मृत्यु हो सकती है? उसे तो सृत्यु स्पर्श तक नहीं कर सकती ।””
यह कहकर उन्होंने ज्योही उस मृत व्यक्तिके शरीर पर हाथ फेरा, त्योंही वह उठकर
खड़ा हो गया । यही व्यक्ति आगे चलकर सच्चिदानन्द वावाके नामसे प्रस्तिद्ध हुए
थे जिन्होंने यहू ज्ञानेदवरी लिपि-वद्ध की थी और जिनका महा राजने
के अन्तमें उल्लेख किया है । यह ज्ञानेदवरी शक संवतु १२१२ या वि० स० १३४७ में
नेवामेंमें महालया देवीके मन्दिरमे लिखी गई थी । अर्थातु इस ज्ञानेदवरीकी रचनाके
समय ज्ञानश्वर महाराजकी अवस्था केवल पन्द्रह वर्षेकी थी । औौर यह उनके अदुभुत
पिद्दानु होनेका एफ बहुत ही उत्कट प्रमाण है । यद्यपि ज्ञानेदवर महाराजके सम्वन्धमें
वनेक चमत्कार प्रसिद्ध हैं, परन्तु यदि उन सब चमत्कारो पर किसीको विश्वास न हो
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