अनाथ भगवान खंड 2 | Anath Bhagwan khand 2

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Anath Bhagwan  khand 2  by चम्पालाल बांठिया - Champalal Banthia

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ देगी । यह चीत दूसरी है कि श्राप झपनी श्यात्मा की सलाह-की उपेक्ता करें मगर यदि श्राप अपनी श्रात्मा को सलाद की उपेक्षा न करो तो श्रापकी श्रात्मा श्रापफो सच्ची सलाइ श्र सांत्ती श्रवश्य देगी । दच्त ऊपर-- ऊपर से दी दृष्टिगोचर होता है उसका मूल दृष्टिगोचचर नहीं दोता । फिर भी छ्रक्त को ऊपर से श्रच्छा देखकर श्रनुमान किया जा. सकता है कि उसका मूल भी श्रच्छा ही होगा श्र वहाँ की भूमि मी झच्छी होगी । इसी प्रकार साघु की मुखमुद्दा श्रौर देखकर निर्णय किया नी सकता है कि उसमें गुण हैं या नहीं १ ऐसा होने पर मी श्रगर यही श्राप रखा जाय कि हम तो श्रमुक को ही मानेंगे फिर भले ही वह कैसा भी क्यों न हो तो यह जान-वृभ कर गड़द्दे में गिरने के समान है । कहा जा सकता है कि उ.ई साधु ऊपर से साधुपन टिखला कर चालाकी से हमें ठग ले तो इर्में क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यद्दी है फिश्याप साधु को न पदचान सर्के तो बात जुदा है किन्तु श्रापकी श्रन्तरात्मा तो युण की ही उपासक है श्रौर श्रापका ध्येय कोरे वेष को साधु मानना नहीं है। श्रतएव श्रापको तो गुण का ही लाभ होगा । शास्र में कद्दा दै -- सिमयत्ति मन्नमाणे समया वा मससया वा समया होई त्ति उवेद्दाए - धर्यात्‌--तुम्दारा हृदय सम दै श्रौर ठुम समता के ही उपासक छो तो वुग्हें समना का दी लाभ होगा । फिन्तु यदि ुग्हारे हृदय में घसमता ऐगी मलीनता होगी तो सच्चे साधु का सम्पर्क पाकर मी तुम श्रपना कल्याण नद्दीं कर सकोगे । व्रत्तएव किसी साधु को चालाकी तुम्शरी समभ में न श्रावे श्र हुम




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