महादेवी के काव्य में वेदना | Mahadevi Ke Kavya Me Vedana

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Mahadevi Ke Kavya Me Vedana by प्रभा खरे - Prabha Khare

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ँ ७ मनोविश्लेपणशास्त्र की हष्टि से अवचेतन में निद्टित अगणित भाव-ग्रथियों का, स्मृतियो का, मानस तरगो का सहसा सक्रिय हो उठनां वेदना के भन स्ताप का द्योतक होता है भर फ़ायड ये मानता है कि रचनाकार मन स्तापी होता है । अते मन स्ताप की अगणित अवस्थाओ का जैसा उद्घाटन भवभूति ने क्या है बह 'एकोरस यरुणऐव' को चरितार्थ करने वाला है । हरबर्ट मारव्यूस न अपनी पुस्तक £ए०5 200. फस्प्याइबध0ा में प्रेम, काम और सभ्यता के जटिल सबधी पर जो विचार किया है उसका आशय यही है कि चीज रूप में निद्दित कामवासना जीवन के विविध सदभों में रूपातरित होकर प्रम वी सस्कति का कारण बनती है । उसी मे मनुष्य वी स्थिति है और उसका सामाजिक भाव है ।” चास्तव मे प्रेम उस वाज रूप कामवासना की रूपान्तरित उदात्त हृष्टि है। बचिता के संदभ में यदि पात्र सस्कारों है तो उसकी वाज रूप कामवासना का उद्घाटन इसी उदात्त एव भव्य रूप मे होगा । इसीलिए प्रेम-सम्ब था के द्वदन से उत्पन वेदना या विधोग क॑ मूता म जो कामभाव हैं वह प्रेम को सस्टति के सुप मे भधवा करण रस क रूप मे उद्घाटित होता है । द्रप्टव्य है कि वेदना' एक भाव है जिसकी निप्पत्ति करुण में होती है । वदना या व्यथा चि तामूलक, दु खबाधक यान वो उत्पन्न करता है और इन न्ियाआ वा समाहार अथवा निष्पत्ति रस की सह्इति मे हाता है जिसे करुण रस को सज्ञा दी गयी है । भवभूति ने वीज रूप कामबासना के बिछाह अथवा टूटने, खडित हान का थो 'रसात्मक उत्कर्ष राम के वियोग मे उतारा है वह विश्व के शोक्-छदस” की श्रेष्ठनम देन है । वे बहते हैं--गाढी व्यथा वाला हृदय फटता है, किन्तु दो छण्डो मे विभक्त नहीं होता । शोक से दुवल शरीर मूर्च्छा को घारणा बरता है किन्तु चेतना (संज्ञा) को नहीं छोडता, मन स्ताप शरीर को जला रहा है किन्तु पूण रूप से भस्मीभूत नहीं नरता, सर्म को वीधने वाला दैव प्रहार करता है किन्तु जोवन का काठ नहीं डालता । * दु ख कुछ इसी तरह वा होता है । भवभूति न करुण रस की सस्दति के विविध उतार-चढावों का जैसे साक्षात्वार किया था और यह साक्षीहृत करुण-वोध ही बिन्दु रविवता के रूप में मोनियों को माला के समान रचित हुआ है । १. छिटाएल। वघाटपइट . काएड पते (५1108 घ100, से! हो व.दाह पष्ह रिट्रडुणाप किर55, 1,000 २ दलति हृदय गादोद्ेग दिधा तु. न मिद्यत रहित बिकल कायो मोह न मुझ्ति चेतनामु । ज्वलयति तन्नूमन्तर्दाह करोति न भस्मसाद्‌ प्रहरतिं विधिमर्मच्छेदी न इतन्ति जीवितम्‌ ॥ इ१ ॥ उत्तर रामचरितम--ठूतीय अक, प्र० स० पह६३ । #. 200, 1969




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