धर्म महासमर - ४ | Dharam mahasamar - 4

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Dharam mahasamar  - 4 by नरेन्द्र कोहली - Narendra kohli

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“आपका है “अधिक सुखी मैं 'हूँ या दुर्योधन ?” “आप हैं !” “पर न तो मेरे पास धन-सम्पत्ति है, न वैभव-विललास, न राज्य है न सेना । व्यास मुस्कराए । उनकी दृष्टि भीम पर टिकी रही, किन्तु भीम ने कोई उत्तर नहीं दिया । व्यास धीरे-से बोले, “जीवन में प्राप्तव्य केवल एक है”मन की शुद्धता, आत्मा की निरवरणता और भौतिक बन्धनों से मुक्ति। सारा विकास, सारा सुख और सारी उपलब्धियाँ इसी में हैं? दुर्योधन ने जो कुछ किया है, क्या उससे उसका मन पहले की तुलना में कुछ अधिक शुद्ध हुआ है ? क्या उसकी आत्मा पहले की तुलना में अधिक तमसाच्छनन नहीं हुई ? क्या वह सांसारिकता के बन्धनों में और अधिक नहीं बैँधा है ?” व्यास ने क्षण भर रुककर सबको देखा, “प्रकृति के नियम बड़े विचित्र हैं पुत्र ! वह श्रम को प्रोत्साहित करती है, माया का प्रपंच रचती है। मनुष्य सोचता है कि वह अपने लिए सुख संचित कर रहा है, जबकि वह अपने लिए अनन्त यातना का सृजन कर रहा होता है ।” वे निमिष भर रुके, “आकाश से वर्षा के रूप में जल की जो बूँद टपकती है, वह जल का शुद्धततम रूप है | पृथ्वी पर वह अपनी यात्रा में पुष्प की पखुड्टी पर टपककर, वहीं से अपने शुद्धत्तम रूप में सूर्य की किरणों के सहारे आकाश की ओर लौट सकती है किन्तु वह पृथ्वी के विभिन्‍न प्रकार के मलों को अपने भीतर संचित कर यह कल्पना भी कर सकती है कि वह अत्यन्त समृद्ध है, अपनी इच्छानुसार सम्पत्ति एकत्रित करने से उसे कोई नहीं रोक रहा। उसे यह स्मरण नहीं रहता कि उसे आकाश में लौटना भी है, और यह तब तक सम्भव नहीं होगा, जब तक वह पुनः अपने उसी मौलिक शुद्ध रूप को प्राप्त न कर ले, जब तक वह अपने भीतर समाए मल के अंतिम कण तक को निष्कासित न कर ले। जब तक वह अपने आपको अपनी मूल प्रकृति के समान शुद्ध नहीं कर लेगी, उसे इसी प्रकार पृथ्वी के मल के बीच भटकना होगा ।”वही स्थिति आत्मा की है पुत्र । आसक्ति से अधर्म की वृद्धि होती है और अर्जन से आसक्ति बढ़ती है। उपलब्धियों से अहंकार की वृद्धि होती है। अधर्म हो, आसक्ति हो अधवा अहंकार हो” ये सब तो सुख के साधन नहीं हो सकते पुत्र ! क्योंकि ये तुम्हें शांति नहीं दे सकते ।” व्यास ने रुककर सब पर एक दृष्टि डाली, “तुम सुढी हो, क्योंकि तुमने अधर्म का पक्ष नहीं लिया, तुम सुखी हो क्योंकि तुममें आसक्ति नहीं है, अन्यथा प्राण रहते, तुम लोग हस्तिनापुर नहीं छोड़ सकते थे । तुम्हारा मन निर्मल और शान्त है क्योंकि उसमें अहंकार का ताप नहीं है। इसलिए यह मत सोचो कि दुर्योधन अधर्म करके भी सुखी है। उसने अपने लिए जाने कितने यातनामय एवं पश्चात्तापपूर्ण भावी जन्मों की नियति रच डाली है! और इस जीवन में हस्तिनापुर की सारी सम्पत्ति लेकर भी वह सुखी नहीं होगा। वह तुम्हारी उन्नति देखकर ईर्ष्याग्नि में जलता रहेगा। उसकी स्थिति उस व्यक्ति की-सी है, जो अपने सामने भोजन से भरे घाल को लिए बैठा रहेगा, किन्तु उसे खाकर तृप्त होने के स्थान पर, वह दूसरे व्यक्ति को भोजन करते देख यह सोच-सोचकर पीड़ित होता रहेगा, कि उस व्यक्ति को भोजन मिला ही क्यों ।” महर्षि ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, “सुख अर्जन में नहीं विसर्जन में है पुत्र । भोग में नहीं त्याग में है, विनाश में नहीं धर्म/21




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