सन्यासी या देश को आवाज | Sanyasi Ya Desh Ko Awaj

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Sanyasi Ya Desh Ko Awaj by भगवत स्वरुप जी जैन भगवत - Bhagwat Swaroop Jee Jain Bhagwat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'राष्ट्रीय-नाटक [१५३ “स्व. नया “नका- नमक सद्दाराज--( गस्भीरता से ) तोड़ दिया ! ”****” तोड़ दिया--वदद आइना भी तोड़ दिया जो मुझे अपनी साफ़ सूरत बतला रहदा था ! ”” आओफ़्‌ ज़ल्म'” ! जुल्म ! मेरी आँखों के सामने एक बे-गुनाद का खून ? बज़ोर--(बड़े प्रेम से) नहीं, महाराज ! इसका नाम जुल्म नहीं,” राज नीति है ! राज-काज इसी तरह चलता है। आप नहीं समक सकते, इसके लिए . एक नहीं, सेकड़ों मनुष्यों का ,खून वहा कर सल्तनत की नींव मज़बूत की जाती है | नहीं तो देश में विद्रोह की आग भड़क उठती है । महाराज-( भोलेपन के साथ ) अच्छा ? यह बात है ?--तो लाश्ो एक जाम और ! ( बजीर जाम भर कर देता हैं, महाराज पीते हैं--सिंहामन पर बिराजे हुए ) । [ पट-परिवतन ] तीसरा दृश्य [ स्थान>-श्मशान-भूमि ! नर मुण्ड, हदृड्ियाँ जहाँ-तहँ पढ़ी हैं! एक चिता जल रददी चारो ओर शान्ति ! ]-- | सुनीता का भागते हुए आना ! । : सुनीता--( रोते हुए ) पिता जी ! पिता जी !! कहाँ गए मुझे अकेला छोड़ कर ? मुझ अभागिनी को अनाथ बना कर ? आह ! इस भयावने संसार में कौन हे मेरा ? किसको अपना दुख सुना कर हृदय की आग को हल्का करूँ ? ( रोती है ) 'ओह ! देशसेवा के




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